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Jaishankar Prasad का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Jaishankar Prasad Biography in Hindi
Jaishankar Prasad Biography in Hindi

जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक महान कवि, नाटककार, दार्शनिक एवं सच्चे देशप्रेमी थे। उनका नाम छायावादी काव्य-धारा के प्रवर्तक के रूप में लिया जाता है। जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी साहित्य में नूतन काल की चेतना का प्रादुर्भाव किया। जयशंकर प्रसाद जी ने अपने रचना के वलबूते काव्य के विषय क्षेत्र में अमूल्य परिवर्तन किए। इस कारण से जय शंकर प्रसाद को छायावाद काव्य के जन्मदाता भी कहा जाता है। जयशंकर प्रसाद जी को बचपन से ही काव्य रचना में रुचि थी। प्रारंभ में उन्होंने ब्रजभाषा में कविता लिखना शुरू किया। उन्होंने मात्र 9 साल की अवस्था में ही व्रजभाषा में ‘कलाधर’ नामक एक सवैया की रचना की थी। Jaishankar Prasad का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

Jaishankar Prasad का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय(Jaishankar prasad ka jivan parichay in Hindi)

 

उन्हें काव्य के साथ नाटक, उपन्यास और कहानी लिखने में भी निपुणता हासिल थी। कहानीकार के रूप में भी जयशंकर प्रसाद अपना विशेष स्थान रखते हैं। जयशंकर प्रसाद ने इंदु नामक मासिक पत्रिका का भी सम्पादन किया। हिंदी के प्रख्यात लेखक जयशंकर प्रसाद जी का जीवन परिचय पढ़ने से पता चलता है की उन्हें महिलाओं के प्रति अपार श्रद्धा था। यह बात उनके काव्य के कुछ पंक्ति से भी मालूम पड़ता है। इस लेख में जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय साहित्य में स्थान रचनाएँ आदि का विस्तार से संकलन किया गया है। हमें आशा है की यह लेख आपको जरूर पसंद आएगी।

 

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय हिंदी में

पूरा नाम (Full Name) जयशंकर प्रसाद (English – Jaishankar Prasad)
जन्म तिथि – 30 जनवरी 1890 ईस्वी
जन्म स्थान – वाराणसी के पास, उत्तरप्रदेश
माता का नाम श्रीमती मुन्नी देवी
पिता का नाम बाबू देवीप्रसाद साहू
पत्नी का नाम कमला देवी
पेशा कवि और लेखक
निधन 15 नवंबर 1937 वाराणसी,
शैक्षणिक योग्यता हिंदी, संस्कृत अंग्रेजी, फारसी व उर्दू में ज्ञान
लेखन विधा काव्य रचना, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध
भाषा शैली भावपूर्ण एवं विचारात्मक एवं चित्रात्मक।
प्रमुख रचना – कामायनी, कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, करुणालय, प्रेम-पथिक, झरना, आँसू, लहर आदि

 

जयशंकर प्रसाद की जीवनी – Jaishankar prasad ka jivan parichay in Hindi

जयशंकर प्रसाद का जन्म सन 30 जनवरी 1890 ईस्वी में वाराणसी के एक समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम देवी प्रसाद साहू बड़े ही नेक दिल इंसान थे। उनके पिता कासी में ही सुँघनी साहू के नाम से मशहूर तंबाकू का व्यापार करते थे।

 

बचपन से जयशंकर प्रसाद अत्यंत ही मितभाषी, सहनशील और विनम्र स्वभाव के थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा घर पर ही संस्कृत में हुई थी। बाद में उनका नामांकन अंग्रेजी स्कूल में कराया गया।

जब जयशंकर प्रसाद की उम्र महज 12 साल की थी उस बक्त उनके पिता का निधन हो गया। उसके ठीक तीन साल बाद उनकी माता भी इस दुनियाँ से चल बसी। इस कारण उनकी शेष शिक्षा घर पर ही हुई।

जयशंकर प्रसाद के गुरु का नाम श्री मोहिनीलाल गुप्त (रसमय सिद्ध) था। माता पिता के निधन के बाद उन्हें अपार मुसीबत का सामना करना पड़ा, लेकिन हिम्मत नहीं हारते हुए उन्होंने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया।

उन्हें हिन्दी भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी, संस्कृत, बँगला तथा उर्दू का भी अच्छा ज्ञान था। जयशंकर प्रसाद की पत्नी का नाम कमला देवी थी।

 

जयशंकर प्रसाद का साहित्य परिचय

उन्होंने नाटक, कहानी, उपन्यास की भी रचना की। इनकी प्रारम्भिक रचना में कानन कुसुम, चित्रधार, महाराणा का महत्व, करुणालय और प्रेम पथिक का नाम आता है। इस काव्य की भाषा अत्यंत ही सरल व सुबोध लगती है।

इनके मध्यकालीन रचना में झरना, लहर, आँसू के नाम हैं। उनकी काव्य यात्रा का अंतिम पड़ाव कामायनी है। अंतिम काव्य रचना कामायनी उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

इसमें प्रसाद जी का परिपक्व चिंतन, काव्य प्रतिभा अपनी पराकाष्ठा पर दृष्टिगोचर होती है। कामायनी को महाकाव्य की दृष्टि से भी एक अद्भुत कृति मानी जाती है।

 

जयशंकर प्रसाद का साहित्य में स्थान

हिन्दी साहित्य में जयशंकर प्रसाद जी को एक नई दिशा देने के कारण उन्हें ‘प्रसाद युग’ का निर्माणकर्ता और छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में जयशंकर प्रसाद की स्थान का उच्च है।

उनकी रचनाएं कक्षा 9, कक्षा 10 और कक्षा 12 के अलावा पोस्ट ग्रेजुएशन में भी देखने को मिलती हैं। जयशंकर प्रसाद जीवन परिचय से जहां उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बारें में पता चलता है वहीं उनकी रचनाएं अत्यंत ही सरल, सुलभ और यथार्थ ज्ञान देती प्रतीत होती है।

 

जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली

जयशंकर प्रसाद की शुरू में उन्होंने व्रजभाषा में अपनी कविता लिखी। जिस कारण शुरुआत की रचना शैली की भाषा सरल लगती है। उनकी बाद की रचनाओं में भाषा तत्सम शब्द प्रधान होती चली गयी।

जयशंकर प्रसाद की प्रारम्भिक रचना व्रजभाषा की प्राचीन शैली में रचित है। 19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने छायावादी काव्य रचनाओं का प्रारंभ कर दिया था।

 

जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाएं

काव्य कृति– जयशंकर प्रसाद के प्रमुख काव्य रचना में कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, करुणालय, प्रेम-पथिक, झरना, आँसू, लहर और कामायनी प्रमुख हैं। उनकी सभी रचना में भारत की समृद्ध संस्कृति की साफ झलक दिखाई पड़ती है।

नाटक – जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित नाटक में राज्यश्री, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, धुरवस्वमीनी, विशाख, कामना, एक घूँघट, परिणय और कल्याणी इत्यादि प्रमुख हैं।

उन्होंने भारत के गौरवमयी अतीत को अपने नाटकों का विषय बनाया और इतिहास के प्रसिद्ध पात्रों को नए ढंग से प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने गीतों की भी रचना की है जो नाटकों के बीच-बीच में प्रयोग किये गये हैं।

जयशंकर प्रसाद की कहानी संग्रह – जैसा की हम जानते हैं की एक कहानीकार के रूप में भी जयशंकर प्रसाद का अपना विशेष स्थान प्राप्त है।

उनके कहानी संग्रह में आकाशदीप, इंद्रजाल,आंधी, प्रतिध्वनि, छाया आदि आते हैं। इनके द्वारा लिखित कहानी ‘ग्राम’ को हिन्दी साहित्य के प्रथम मौलिक कहानी माना जाता है।

 

जयशंकर प्रसाद की काव्यगत विशेषताएँ

जयशंकर प्रसाद की रचना में छायावाद के अतिरिक्त रहस्यवाद और दर्शनिकता भी साफ दृष्टिगोचर होती है। उनकी काव्य रचना कामायनी में रहस्यवाद और दर्शनिकता को उनकी इन पंक्तियों से जान सकते हैं–

“ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे। जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी, निश्चल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे।।”

वे छायावाद के जन्मदाता कवि माने जाते हैं। छायावाद का अनुपम रूप उनकी कविता में देखा जा सकता है।

“रजनी रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला। अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टूटा प्याला।”  

उनकी कविता में प्रकृति सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन भी मिलता हैं, जो उनकी कविता की इस पंक्ति से दिखाई पड़ता है।

“किरण! तुम क्यों बिखरी हो आज, रँगी हो तुम किसके अनुराग। स्वर्ण सरजिस किंजल्क समान, उड़ाती हो परमाणु पराग।। ” 

 

जयशंकर प्रसाद की मृत्यु

जयशंकर प्रसाद एक साधक की तरह अपना जीवन बिताया। पारिवारिक चिंताओं के कारण वे रोग ग्रस्त हो गये। इस प्रकार मात्र 48 वर्ष की अवस्था में इस दुनियाँ से चल बसे।

उनकी मृत्यु 15 नवंबर, 1937 ईस्वी में हुई। हिन्दी साहित्य में दिए अपने योगदान के द्वारा वे सदा-सदा के लिए अमर हो गये।

 

 

जयशंकर प्रसाद की कविताएं

प्रसाद जी की कविता हिमाद्रि तुंग शृंग

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!

 

जयशंकर प्रसाद कृत कामायनी

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान।

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी- अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

“चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जात, रेखायें दुख की।

चलते थे सुरभित अंचल से, जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना।

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।”

“चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव, गीतों में, स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नर्तन,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवर्तन।

 

जयशंकर प्रसाद का निष्कर्ष

जयशंकर प्रसाद एक महान छायावादी कवि थे। इसके अलावा उनके गद्य और पद्य दोनो में ही ज्यादातर भावनात्मक शैली का प्रयोग मिलता है। हिन्दी साहित्य जगत इस महान सपूत का सदा ऋणी रहेगी।

 

 

F.A.Q

Q. जयशंकर प्रसाद का जन्म कब हुआ था ?

Ans-जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को ब्रिटिश भारत में वर्तमान वाराणसी में हुआ था।

Q. जयशंकर प्रसाद किस वाद के कवि थे?

Ans-जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं।  

Q.जयशंकर प्रसाद के श्रेष्ठ भ्राता का क्या नाम था ?

Ans-प्रसाद जी के श्रेष्ठ भ्राता का नाम शम्भू रत्न था।

Q.जयशंकर प्रसाद का पहला नाटक कौन सा है?

Ans-जयशंकर प्रसाद जी द्वारा रचित पहला नाटक राजश्री था।

Q.जयशंकर प्रसाद का अंतिम नाटक कौन सा है?

Ans-हिन्दी के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद जी का अंतिम नाटक ‘कामायनी’ था।

Q.जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित चंद्रगुप्त किस विधा की रचना है?

Ans- जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित चंद्रगुप्त के नाटक है। प्रसाद जी द्वारा रचित यह उनकी प्रसिद्ध कृति मानी जाती है। इस नाटक में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ के बारें में विस्तृत वर्णन मिलता है।

 

 

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Gopal Singh Nepali का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Gopal Singh Nepali Biography in Hindi
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गोपाल सिंह नेपाली कौन थे ? Gopal Singh Nepali (Indian poet) गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी साहित्य के जाने माने कवि, गीतकार और पत्रकार थे। प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली का वास्तविक नाम गोपाल बहादुर सिंह था। उन्हें हिन्दी और नेपाली भाषा पर अच्छी पकड़ थी।फलतः उन्होंने हिन्दी के साथ साथ नेपाली भाषा में भी कई रचनायें लिखी। अपने जीवन काल में उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। जिसमें ‘रतलाम टाइम्स‘, ‘चित्रपट‘, ‘सुधा‘ और ‘योगी‘ नामक पत्रिका प्रमुख हैं। Gopal Singh Nepali का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

गोपाल सिंह नेपाली का जीवन परिचय - Gopal Singh Nepali Biography in Hindi

गोपाल सिंह नेपाली का जीवन परिचय – Gopal Singh Nepali Biography in Hindi

 

उत्तर छायावाद के रूप में प्रसिद्ध नेपाली जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्हें हिन्दी और नेपाली दोनों भाषा पर अच्छी पकड़ थी। नेपाली जी ने हिन्दी और नेपाली भाषा में दर्जनों गीत की रचना की।

उन्होंने बॉलीवूड और नेपाली फिल्मों के लिए 400 से भी ज्यादा गीत लिखे। इतनी अधिक संख्या में गीतों को लिखने के कारण ही गोपाल सिंह नेपाली को गीतों का राजकुमार कहा जाता है।

उनकी रचना में जहां एक तरफ शृंगार रस की परिपूर्णता दिखती है। वहीं दूसरी तरफ देश प्रेम से भरे गीतों के रचना कर उन्होंने 1962 में भारत चीन युद्ध के समय युवाओं में अतिरिक्त जोश भरने का कार्य किया।

आईए इस लेख के माध्यम से प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली की जीवनी, हिन्दी और नेपाली साहित्य में उनका योगदान, फिल्मों में उनके अमूल्य गीतों के रचना के बारें में जानते हैं।

 

कवि गोपाल सिंह नेपाली संक्षिप्त जीवनी – Gopal Singh Nepali Information in Hindi

मूल नाम – गोपाल बहादुर सिंह
पूरा नाम – गोपाल बहादुर सिंह ‘नेपाली’
जन्म वर्ष – 11 अगस्त 1911
जन्म स्थान – बिहार पश्चिमी चंपारण
माता का नाम – वीणा रानी
पिता का नाम – रेलबहादुर सिंह
प्रसिद्धी – गीतकार, लेखक, कवि और संपादक के रूप में
मृत्यु – 17 अप्रेल 1963
प्रसिद्ध रचना – घूंघट घूंघट नैना नाचे गोपाल सिंह नेपाली

 

गोपाल सिंह नेपाली का जीवन परिचय – About Gopal Singh Nepali in Hindi

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म व शिक्षा दीक्षा

महान कवि गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 ईस्वी में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन बेतिया में हुआ था। बेतिया वर्तमान में बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारन जिले में पड़ता है। गोपाल सिंह नेपाली के पिता का नाम रेलबहादुर सिंह और माता जी का नाम वीणा रानी था।

उनका प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने ही बेतिया में सम्पन्न हुई। हालांकि कहा जाता है की वे उच्च शिक्षा से वंचित रहे। फिर भी उन्होंने कड़ी मेहनत के वल पर हिन्दी और नेपाली भाषा पर निपुणता हासिल की।

उन्होंने अपनी लेखनी से सिद्ध कर दिया की केवल स्कूली शिक्षा और सर्टिफिकेट ही सफलता की निशानी नहीं हो सकती। मात्र 23 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी।

 

सेना में नौकरी

गोपाल सिंह नेपाली ने सेना में भी काम किया। उनके पिता श्री रेलबहादुर सिंह भी सेना में हवलदार मेजर थे। उन्हें पंजाब रेजिमेंटल सेंटर में प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। सेना में सेवा करते हुए वे सार्जेंट के रेंक तक प्रोमोशन पाये।

कहा जाता है की गोपाल सिंह नेपाली एक उत्कृष्ट खिलाड़ी भी थे। उनका प्रिय खेल में हॉकी, बास्केटबॉल शामिल था। सेना में अपने सेवा के दौरान उन्होंने अंतर-रेजिमेंटल और राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिप में अपने रैजमेंट का प्रतिनिधित्व किया था। 

बाद में उनकी पदोन्नति कंपनी हवलदार प्रमुख के रूप में हुई। सेकंड वर्ल्ड वार के समाप्ति के बाद वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल व्यवसाय दल के रूप में जापान गए। सेना में नौकरी के बाद वे फिल्मों से नाता जोड़ लिया।

 

हिन्दी और नेपाली फिल्मों में योगदान

कहा जाता है की लोकप्रिय गीत रचना के बाद भी उनके जीवन में लम्बे समय तक आर्थिक तंगी रही। उनकी मुलाक़ात तुलाराम जालान से होने के बाद उन्होंने उनसे अनुबंध कर लिया। इस प्रकार उनकी फिल्म नगरी में प्रवेश हुआ।

नेपाली जी ने सबसे पहले फिल्म ‘मजदूर’ के लिए गीत की रचना की थी। उनके द्वारा लिखे गये गीत लोगों को बहुत पसंद आए। इन गीतों में कुछ गीत काफी लोकप्रिय हुये। आगे चलकर वे निर्माता और निर्देशक भी बने।

उन्होंने ‘नेपाली पिक्चर्स’ और ‘हिमालय फिल्म्स’ की स्थापना किया। इस प्रकार एक निर्माता निर्देशक के रूप में भी उन्होंने ढ़ेर सारे नाम कमाए। अपने निर्देशन में उन्होंने ‘नजराना’, ‘सनसनी‘ और ‘खुशबू’ नामक तीन फीचर फिल्मों का निर्माण किया।

 

गीतों के राजकुमार थे गोपाल सिंह नेपाली

हिन्दी के गीतकारों में उनका स्थान अग्रणी है। उन्होंने हिन्दी और नेपाली भाषा के 60 से अधिक फिल्मों के लिए 400 से भी अधिक गीत लिखे। इसी करना गोपाल सिंह नेपाली को “गीतों का राजकुमार” कहा जाता है।

 

देशभक्ति का जज्बा

नेपाली जी के अंदर देश भक्ति का जज्बा कूट-कूट का भरा था। गोपल सिंह नेपाली एक बहुत बड़े देश भक्त थे। जब सन् 1962 में भारत और चीन बीच लड़ाई चल रही थी।

तब उन्होंने देश के सैनिकों और युवाओ के अंदर देशभक्ती की भावना को प्रबल करने के लिए अनेकों देशभक्ति कविता की रचना की।

देशभक्ति से ओत पोत उनकी रचनाओं में ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘ऑंचल’, ‘उमंग’, ‘रागिनी तथा नीलिमा’, ‘पंछी’ ‘रिमझिम’ , ‘पंचमी’,  ‘नवीन’, और ‘हमारी राष्ट्रवाणी’ आदि प्रमुख हैं।

पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन में योगदान

गोपली सिंह नेपाली बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक कवि, लेखक, गीतकार, निर्माता, निर्देशक और पत्रकार भी थे। उन्होंने काफी समय तक पत्रकारिता भी की। साथ ही अपने जीवन में वे कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।

उन्होंने ‘रतलाम टाइम्स’, ‘चित्रपट’, ‘सुधा’, ‘पुण्य भूमि’ एवं ‘योगी‘ नामक पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के रूप में कार्य किया। उन्हें प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ भी काम करने का मौका मिला। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ मिलकर उन्होंने ‘सुध’ नामक हिन्दी मासिक पत्रिका का संपादन किया। 

 

 

गोपाल सिंह नेपाली का साहित्यिक परिचय

महान कवि गोपाल सिंह नेपाली के अंदर विद्वता कूट-कूट कर भरी हुई थी। नेपाली जी को बचपन से लिखने में काफी रुचि थी।गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की रचनाएँ जहां देश-प्रेम से भरी होती थी।

वहीं उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं की सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति नजर आती थी। उनकी गिनती हिन्दी साहित्य जगत में एक छायावाद कवि के रूप में की जाती है।

उनकी काव्य संग्रह की बात की जाय तो उनका पहला कविता संग्रह ‘उमंग’ था जो 1933 में प्रकाशित हुआ। नेपाली जी की रचनाओं में प्रकृति-प्रेम, देश-प्रेम तथा मानवीय भावनाओं का मनोरम चित्रण देखने को मिलता है।

गोपाल सिंह नेपाली की रचनाएं

गोपाल सिंह नेपाली की कविताएं और उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘हिमालय ने पुकारा’, ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘रागिनी’ ‘पंचमी’, ‘भारत गगन के जगमग सितारे’, ‘नीलिमा’, ‘आँचल’, ‘पंचमी’, ‘नवीन’, ‘रिमझिम’, ‘वसंत गीत’, ‘हमारी राष्ट्रवाणी’ और ‘पंछी’ आदि प्रमुख हैं।

गोपाल सिंह नेपाली का निधन

गोपाली सिंह नेपाली ने लगभग 53 वर्ष तक हिन्दी और नेपाली साहित्य का सेवा की। लेकिन 17 अप्रैल 1963 को गोपाल सिंह नेपाली जी का बिहार के भागलपुर में निधन हो गया।

उन्होंने अपने जीवन के मात्र 53 साल में हिन्दी साहित्य में जो योगदान दिया वह कालजयी है। हिन्दी और नेपाली साहित्य और फिल्मी दोनों जगत इस महान कवि को हमेशा याद करेगा। 

गोपाल सिंह नेपाली संकलित कविताएँ

आइये गोपाल सिंह नेपाली की कविता के कुछ अंश से अवगत होते हैं।

गोपाल सिंह नेपाली की कविता हिमालय और हम

1. इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही । पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।। अंबर में सिर, पाताल चरण, मन इसका गंगा का बचपन, तन वरण-वरण मुख निरावरण, इसकी छाया में जो भी है, वह मस्‍तक नहीं झुकाता है । ग‍िरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

2. हर संध्‍या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है। हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है।। इसकी छाया में रंग गहरा है देश हरा, प्रदेश हरा, हर मौसम है, संदेश भरा, इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है। गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

3. जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी। है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी।। कोई क्‍या हमको ललकारे हम कभी न हिंसा से हारे, दु:ख देकर हमको क्‍या मारे, गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है । गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।

 

 

गोपाल सिंह नेपाली की कविता सरिता

यह लघु सरिता का बहता जल,
कितना शीतल, कितना निर्मल।

हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह विमल दूध-सा हिम का जल।

रखता है तन में इतना बल।
यह लघु सरिता का बहत जल।।

निर्मल जल की यह तेज धार,
करके कितनी श्रृंंखला पार।

बहती रहती है लगातार,
गिरती-उठती है बार-बार।

करता है जंगल में मंगल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल।

जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल।

गंगा, यमुना, सरयू निर्मल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

 

 

लेख से संबंधित प्रश्न (F.A.Q)

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म कहां हुआ था? 

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 ईस्वी में बिहार राज्य के वर्तमान पश्चिमी चंपारण जिले में हुआ था। 

गोपाल सिंह नेपाली का मूल नाम क्या है ?

प्रसिद्ध कवि गोपालसिंह नेपाली का मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है।

गोपाल सिंह नेपाली की मृत्यु कब हुई?

गोपाल सिंह नेपाली की मृत्यु 17 अप्रैल 1963 हुई।

गोपाल सिंह नेपाली किन भाषाओं के प्रसिद्ध कवि थे ?

कवि गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी और नेपाली भाषाओं के प्रसिद्ध कवि थे।

 

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Munshi Premchand का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Munshi Premchand का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

 

 

मुंशी प्रेमचंद्र को कलम का सिपाही कहा जाता है। कुछ विद्वान उनकी तुलना गोर्की से भी किया है। उन्होंने रामदास गौड़ से प्रेरणा पाकर हिन्दी साहित्य में लेखन का आरंभ किया था। उपन्यास के रचना के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान के कारण प्रसिद्ध  कवि व लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहा था। वे मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने प्रारंभ में अपनी रचना नवाब राय के नाम से ही लिखी थी बाद में उन्होंने प्रेमचंद्र नाम रख लिया था। गोदान उनकी कालजयी रचना कहलाती है, जबकि कफन उनकी आखरी रचना मानी जाती है। आइए इस लेख में उनके जीवन और रचनाओं के बारें में थोड़ा विस्तार से जानते हैं।

 

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय संक्षेप में – Munshi Premchand ka jeevan parichay

पूरा नाम : धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ़ नवाब राय उर्फ़ मुंशी प्रेमचंद।
जन्म तिथि व स्थान : 31 जुलाई 1880 बनारस के पास
पिता का नाम : मुंशी अजायब राय
माता का नाम : आनंदी देवी।
पत्नी का नाम : शिवरानी देवी
सम्पादित पत्रिका मर्यादा’, ‘हंस’, जागरण तथा माधुरी
निधन : 18 अक्टूबर सन 1936 ईस्वी

 

मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन परिचय – Munshi Premchand ka jeevan parichay in Hindi

प्रारम्भिक जीवन

मुंशी प्रेमचंद्र का जन्म 31 मई 1880 ईस्वी में वाराणसी के पास लमही नामक गाँव मे हुआ था। उनका जन्म एक निर्धन कायस्थ परिवार में हुआ था। कहते हैं की उनके बचपन का नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उन्हें नबाब राय के नाम से भी पुकारा जाता था।

उनके पिता का नाम मुंशी अजायब राय और उनके माता का नाम आनंदी देवी थी। प्रेमचंद्र के पिता अजायब राय डाक खाने में मामूली बेतन पर मुंशी का नौकरी करते थे।

जब प्रेमचंद्र की उम्र महज आठ साल की थी तब उनकी माता का निधन हो गया। उनके कुछ वर्षों के बाद उनके पिताजी जी भी इस दुनियाँ से चल बसे। उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। कहते हैं की मुंशी प्रेमचंद्र का आरंभिक जीवन बहुत ही कष्ट में बीता।

आर्थिक कठनाइयों ने उन्हें हिला कर रख दिया था। कहते हैं की एक बक्त ऐसा आया की घर का खर्चा चलाने के लिए उन्हें अपनी किताब तक बचने की नौवत आ गयी थी।

गरीबी का करीब से अनुभव करने वाले, महान साहित्यकार प्रेमचंद्र ने, भारत के गाँव के लोगों की आर्थिक दशा, अशिक्षा, अंधविश्वास और उनके शोषण का करीब से देखा था।

उन्होंने पाया कैसे साहूकार, जमींदार, घूसखोर अधिकारी, निर्धन और अशिक्षित जनता का खून चूसने में लगी है। समाज में आर्थिक विषमता इस तरह व्याप्त हो रही थी की गरीब दिन-प्रतिदिन और गरीब तथा आमिर और ज्यादा पैसे वाले बनते जा रहे थे।

 

शिक्षा दीक्षा

मुंशी प्रेमचंद्र की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू और फारसी भाषा में आरंभ हुई। उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रयाग राज में primary स्कूल में अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया।

उसी दौरान नौकरी के साथ अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए सन 1910 ईस्वी में अंग्रेजी,फारसी और इतिहास के साथ इंटर की परीक्षा पास की। तत्पश्चात सन 1919 ईस्वी में उन्होंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

 

पारिवारिक जीवन पत्नी व बच्चे

उनका विवाह बचपन में ही मात्र 15 साल की उम्र में हो गयी थी। उनका पहला विवाह सफल नहीं रहा और सन 1905 ईस्वी में उनकी दूसरी शादी हुई। उनकी पत्नी का नाम शिवरानी देवी था। उन्हें तीन संतान की प्राप्ति हुईं उनके नाम थे – श्रीपत राय, अमृत राय तथा कमला देवी।

कैरीयर

ढेर सारे कष्टों के बावजूद वे अपने प्रतिभा के बल पर आध्यापक बने। आगे चलकर वे शिक्षा विभाग में सब डिप्टी इन्स्पेक्टर के पद तक पहुंचे। मुंशी प्रेमचंद्र गाँधी जी अत्यंत ही प्रभावित थे। अतः उन्होंने अपने स्वास्थ्य का हवाला देकर नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

 

हिन्दी साहित्य की ओर अग्रसर

नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वे पूरी तरह से हिन्दी साहित्य के लेखन की तरफ अग्रसर हो गये। उन्होंने रामदास गौड़ की प्रेरणा स्वरूप हिन्दी में लेखन का काम आरंभ किया, तथा अपना नाम बदल कर धनपत राय से प्रेम चंद्र रख लिया।

सामाजिक समस्या को उन्होंने करीब से देखा की जिसका उन्होंने बड़े ही सजीव और सरल रूप अपनी रचनाओं जगह दी है। ग्रामीण जीवन की उन्होंने सफल व्याख्या की है। उनकी रचनाओं में समाजवादी विचारधारा की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है।

उन्होंने भारत की गरीबी, अशिक्षा, अंग्रेजों का दमन और शोषण, किसानों की दयनीय स्थिति का बहुत ही व्यापक रूप से अपने उपन्यास में चित्रित किया है।

मुंशी प्रेमचंद्र की रचनाओं में आदर्शवाद और यथार्थवाद दोनो का समन्वय मिलता है। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े मुंशी प्रेमचंद्र ने ग्रामीण समस्या को नजदीक से अनुभव किया था।

उन्होंने निर्धनता को घूंट को पिया था, इस कारण उनकी रचनाओं में समाज में व्याप्त शोषण, गरिवी, कुरीतियों और अंग्रेज सरकार के दमन का विस्तृत वर्णन मिलता है।

 

सरस्वती प्रेस की स्थापना

वाराणसी में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की, जहॉं से हंस नामक पत्रिका प्रकाशित होती थी। बाद में घाटा हो जाने के कारण उन्हें बंद करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने माधुरी एवं जागरण पत्रिका का भी सम्पादन किया।

किन्तु वह भी नहीं चला। कहते हैं की कुछ समय तक उन्होंने मुंबई में फिल्म कंपनी में फिल्म के लिए पटकथा भी लिखी लेकिन उन्हें मुंबई रास नहीं आया और कुछ दिनों के बाद वनारस लौट आए। धनपत राय से प्रेमचंद्र और फिर

 

मुंशी प्रेमचंद्र बनने की कहानी

जैसा की हम जानते हैं की उनके बचपन का न धनपत राय था। बाद में उन्होंने अपना नाम प्रेमचंद्र रख लिया। मुंशी प्रेमचंद के नाम के साथ, मुंशी शव्द जुडने के पीछे एक कहानी है।

कहते हैं की जब उनकी पत्रिका हंस प्रकाशित हो रही थी तब उसके संपादक के रूप में ‘कन्हैयालाल मुंशी’  और प्रेमचंद्र दोनो का नाम छपता था। हंस पत्रिका के प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम नहीं होकर मात्र ‘मुंशी’ छपा रहता था और साथ में प्रेमचंद का नाम होता था।

अर्थात उस पत्र के संपादक इस प्रकार लिखा रहता था – मुंशी,प्रेमचंद। कहते हैं की कलांतर में पाठक ने ‘मुंशी’ तथा ‘प्रेमचंद’ को एक ही समझ लिया। इस प्रकार वे मुंशी ‘प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

कुछ लोगों का मानना है की मुंशी विशेषण उनके पिता के नाम मुंशी अजायब राय के नाम से आया था। इस प्रकार वे धनपत राय श्रीवास्तव से प्रेमचंद्र और कलांतर में मुंशी प्रेमचंद्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

 

मुंशी प्रेमचंद का साहित्य में स्थान

मुंशी प्रेमचंद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य की कई रूपों में सेवा की, अपनी रचनाओं यथा  उपन्यास,कहानी,नाटक, संपादकीय,संस्मरण आदि अनेक रूपों में हिन्दी साहित्य की सेवा की।

लेकिन उनकी सबसे ज्यादा प्रसिद्धि एक उपन्यासकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में वे ‘उपन्यास सम्राट’ कहलाये। अपना पहला लेख उन्होंने ‘नबाब राय’ के नाम से लिखी थी।

उन्होंने हिन्दी में 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां और उर्दू में 178 के लगभग रचना की। इसके साथ ही उन्होंने नाटक, अनुवाद और  बाल-पुस्तकें की रचना की। उनके द्वारा रचित उपन्यास और कहानी ने उन्हें हिन्दी जगत का सिरमौर बना दिया।

 

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय और उनकी रचनाएँ

उपन्यास – प्रेमचंद्र का पहला उपन्यास सेवा सदन था। उनके बाद प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि, कायाकल्प, गबन, गोदान,वरदान,प्रेमा, दुर्गा दास, मंगल सूत्र,  निर्मला, प्रतिज्ञा, आदि उपन्यास प्रकाशित हुए।

नाटक – प्रेमचंद ने ‘संग्राम’, ‘कर्बला’ ‘प्रेम की वेदी’ रूहानी शादी, रूठी रानी और चंदहार नामक नाटकों की भी रचना की।

सम्पादन – हंस, जागरण आदि।

प्रेमंचद की कहानी – उनके द्वारा रचित प्रमुख कहानियों में – पंच परमेश्‍वर, गुल्‍ली डंडा, दो बैलों की कथा, ईदगाह, बडे भाई साहब, पूस की रात, नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी, कफन, ठाकुर का कुंआ, सद्गति, बूढी काकी, विध्‍वंस, दूध का दाम, मंत्र आदि नाम लिए जाते हैं।

कहानी संग्रह – सप्‍त सरोज, नवनिधि, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेम-पचीसी, प्रेम-प्रतिमा, प्रेम-द्वादशी, प्रेम तीर्थ, प्रेम पंचमी समरयात्रा, मानसरोवर- भाग एक व दो, तथा कफन आदि प्रमुख हैं। उनका पहला हिन्दी कहानी संग्रह मान सरोबर सन 1917 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था।

मुंशी प्रेमचंद्र की भाषा शैली

उन्होंने अपनी रचना में सरल, सुबोध और आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। प्रारंभ में उन्होंने अपनी रचना उर्दू में लिखी थी। इस कारण उनकी रचना की भाषा उर्दू मिश्रित सरल खड़ी बोली है।

जिसपर ग्रामीण परिवेश में पर्युक्त होने वाले मुहावरे का सुंदर प्रयोग मिलता है। उनके रचनाओं में अरबी, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है। कुछ विद्वान उन्हें हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक मानते हैं।

उनकी रचना शैली अत्यंत ही प्रभावशाली और मार्मिक है। जो पाठक के सीधे दिलों तक पहुच जाती है। तभी तो उन्हें उपन्यास सम्राट के नाम से जाना जाता है।

मुंशी प्रेमचंद्र का निधन

कलम का सिपाही महान जादूगर मुंशी प्रेमचंद्र का जलोदर रोग के कारण 18 अक्टूबर सन 1936 ईस्वी को निधन हो गया। हिन्दी साहित्य जगत उनकी योगदान के लिए सदा नतमस्तक रहेगी।

 

F.A.Q

मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म कब और कहां हुआ ?

मुंशी प्रेमचंद्र का जन्म 31 मई 1880 ईस्वी में वाराणसी के पास लमही नामक गाँव में एक कायसत परिवार में हुआ था।

मुंशी प्रेमचंद की पहली कहानी किस पत्रिका में प्रकाशित हुई ?

मुंशी प्रेमचंद की पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ उर्दू पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित हुई थी।

मुंशी प्रेमचंद्र जी को उपन्यास सम्राट की उपाधि किसने दी ?

उनकी की रचनाओं को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि दी थी।

मुंशी प्रेमचंद्र की किन्हीं तीन कहानियों के नाम लिखिए ?

मुंशी प्रेमचंद्र ने अनेकों कहानी लिखी जिसमें पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, दो बैलों की कथा, पूस की रात, बूढ़ी काकी और कफन आदि प्रसिद्ध है। उनकी 3 कहानियों के बात करे तो नमक का दरोगा, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी का नाम लिखना चाहूँगा।

संकलन तिथि – 15 अगस्त 2020

अंतिम संशोधन – 1 जनवरी 2023

 

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Suryakant Tripathi Nirala का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Suryakant Tripathi Nirala Biography in Hindi
Suryakant Tripathi Nirala Biography in Hindi

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावादी काल के एक प्रसिद्ध कवि कहे जाते हैं। उन्हें महाकवि निराला के नाम से भी बुलाया जाता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई काव्य का जनक भी कहा जाता है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘वर दे वीणावादनी वर दे’ आपने जरूर सूना होगा। यह कविता आज भी सरस्वती बन्दना के रूप में अत्यंत ही लोकप्रिय है। उनके इस लोकप्रिय रचना के कारण लोग उन्हें सरस्वती पुत्र तथा महाकवि जैसे नाम से भी सम्बोधित करते थे। Suryakant Tripathi Nirala का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

 

Suryakant Tripathi Nirala का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

 

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व एवं कृतित्व लोगों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है। जीवन भर वे आर्थिक कठिनाई और अस्वस्थता से जूझते रहे लेकिन हमेशा साहित्य और माँ सरस्वती की साधना दोनों में लीन रहे। उन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी साहित्य के सृजन में लगा दिया। वे प्रकृति प्रेमी कवि थे इस बात का पता उनकी रचनाएं ‘जूही की कली’, ‘संध्या सुंदरी’ से साफ जाहीर होता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से निराला जी का प्रकृति से बेहद लगाव प्रतीत होता है। उनके कविता के कुछ अंश –

 

“सखि, वसंत आया। भरा हर्ष वन के मन। नवोत्कर्ष छाया। सखि, वसंत आया”

कहते हैं की उनके द्वारा रचित मुक्तक छंद को कुछ लोगों ने शुरू में रबड़ और केंचुआ जैसे नाम देकर उपहास उड़ाया था। लेकिन कलांतर में उनकी पहचान एक प्रसिद्ध छायावादी कवि के रूप में हुई।

आइये सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय हिंदी में विस्तारपूर्वक जानते हैं : –

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय इन हिंदी – Suryakant Tripathi Nirala ka jivan parichay

पूरा नाम – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala )
जन्म वर्ष – 21 फरवरी 1896 ईस्वी (वसंत पंचमी)
जन्म स्थान – -मेदनीपुर बंगाल
माता का नाम – माता का नाम रुक्मिणी
पिता का नाम – पंडित रामसहाय त्रिपाठी
निधन -15 अक्टूबर 1961 ईस्वी, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश

कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय – Suryakant Tripathi Nirala Biography In Hindi

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म

निराला जी का जन्म बंगाल के वर्तमान मेदनीपुर जिले (तत्कालीन महिषादल रियासत) में 21 फरवरी 1897 ईस्वी को वसंत पंचमी के दिन हुआ था। यद्यपि उनके जन्म बर्ष को लेकर विद्वानों में मतांतर है।

उनके पिता का नाम ‘पंडित रामसहाय त्रिपाठी‘ था जो बंगाल में नौकरी करते थे। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की माता का नाम रुक्मिणी थी।

बचपन में निराला जी के माता-पिता उन्हें ‘सूर्य कुमार’ नाम से बुलाते थे। लेकिन साहित्यिक जगत में प्रवेश करने के बाद उन्होंने अपना नाम परिवर्तित कर ‘सूर्यकांत’ रख लिया था।

उनका परिवार मूलरूप से उत्तरपरदेश के उन्नाव जिले के गढकोला ग्राम के निवासी थे। अपने माता पिता के साथ निराला जी का अपने पैतृक ग्राम भी आना-जाना लगा रहता था।

जब वे छोटे थे तभी उनके माता जी का देहांत हो गया। फलतः उनका लालन-पालन उनके पिता के द्वारा किया गया। उनके पिता ने स्थानीय स्कूल में उनका दाखिला करा दिया।

शिक्षा दीक्षा

वे अपने नाम के अनुरूप ही अत्यंत ही निराले और विनम्र स्वभाव के थे। बचपन से ही उनकी अभिरुचि संगीत और कुश्ती के प्रति था। उनकी आरंभिक शिक्षा बांग्ला, संस्कृत और अंग्रेजी में हुई। उसके बाद स्वाध्याय से उन्होंने विद्यार्जन किया

परिवरिक जीवन

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का विवाह मात्र 14 वर्ष की उम्र में हो गया। निराला जी की पत्नी का नाम मनोहरा देवी थी। उनकी पत्नी मनोहरा एक सुंदर और विदूसी महिला थी।

उनकी पत्नी रामचारित मानस का नियमित पाठ किया करती थी। फलतः उनके अंदर तुलसीदास जी की कृतियों में गहरी रुचि और हिन्दी साहित्य के प्रति गहरी अनुराग उत्पन्न हो गया।

उन्हें एक पुत्र और एक पुत्री की भी प्राप्ति हुई। उनके पुत्र का नाम रमाकांत त्रिपाठी और पुत्री का नाम सरोज थी।

जीवन में नया मोड़ –

कहते हैं की निराला जी ने अपनी पत्नी से ही हिन्दी का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किया था। लेकिन दुर्भाग्य से सन 1918 ईस्वी में उनकी पत्नी इंफ्लुएंजा की चपेट में आ गई। फलतः उनकी पत्नी का आकस्मिक निधन हो गया।

कुदरत ने ऐसा कहर बरपाया की धीरे-धीरे उनके बच्चे भी काल के गाल में समा गये। वे अंदर से टूट सा गए थे। साथ ही अपनी आजीविका के लिए भी उनके पास साधन का अभाव हो गया।

पत्नी के देहांत के बाद वे बंगाल से अपने ससुराल उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के गढ़ाकोला गाँव में रहने लगे। यहाँ उन्होंने कई वर्ष विताये तथा इस दौरान उन्होंने हिन्दी साहित्य का गहन अध्ययन किया।

वेदान्त मार्ग का अनुसरण

फलतः उन्होंने महिषादल के राजा का पास नौकरी करने लगे। लेकिन नौकरी में उनका दिल तनिक भी नहीं लगा और थोड़े ही समय के बाद नौकरी छोड़ दि। उसके बाद वे रामकृष्ण मिशन से जुड़ कर रामकृष्ण मिशन की पत्रिका ‘समन्वय’ के सम्पादन करने लगे।

रामकृष्ण मिशन से जुड़कर वे स्वामी विवेकानंद के वेदान्त दर्शन से अत्यंत ही प्रभावित हुए। इस प्रकार उन्होंने वेदान्त मार्ग का अनुसरण कर वेदांती बन गये। इस दौरान वे रामकृष्ण मिशन के पत्रिका के सम्पादन के साथ-साथ काव्य रचना में भी रुचि लेने लगे।

‘निराला’ नाम से प्रसिद्धि

कलकता से निकलने वाली एक पत्रिका में निराला जी का एक काव्य रचना ‘जूही की कली’ का प्रकाशन हुआ था। उनके इस रचना के साथ उनका पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ छपा था।  

उनकी वह रचना लोगों को बहुत पसंद आई। कहते हैं की उसी समय से वे ‘निराला‘ के नाम से मशहूर हो गये। कुछ लोगों का कहना है की निराला जी स्वभावतः ही बहुत निराले थे। इसी कारण वे अपने नाम के साथ ‘निराला’ उपनाम जोड़ लिए थे।

निराला जी के जीवन से जुड़ी एक कहानी से पता चलता है की वे बहुत ही उदार और दयालु व्यक्ति भी थी। एक बार उन्होंने ठंढ से बचने के लिए एक नई शाल खरीदी। कड़ाके के ठंड हवा चल रही थी।

वे अपने शाल को ओढ़कर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक भिखारी नजर आया। वह भिखारी ठंड से कांप रहा था। निराला जी से उनकी स्थिति देखी नहीं गई।

उन्होंने समझा एक शाल की मुझसे ज्यादा इसे जरूरत है। फलतः उन्होंने अपना नया शाल उस भिखारी को दान कर दिया।

उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही आकर्षक और ओजपूर्ण था। वे कभी जीवन में हार नहीं माने। भाग्य के लेख को बदलने की कवि की इस अद्भुत जिद के कारण ही आलोचक उन्हें ‘महाप्राण’ भी कहते थे। उनकी लिखित कुछ पंक्तियाँ :-

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अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त.

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का साहित्यिक परिचय

निराला जी की पहली कविता ‘जूही की कली’ मानी जाती है। कहते हैं की इस काव्य रचना को सन 1916 में साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशन हेतु भेजा गया था। तब उनकी रचना को संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने निम्न श्रेणी की रचना समझकर लौटा दिया था।

लेकिन आगे चलकर निराला जी को छायावाद की श्रेष्ठतम कविताओं में गिना जाने लगा। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने सबसे पहली पत्रिका ‘मतवाला’ का संपादन 1923 में किया था।

उसके बाद निराला साहब कलकता से लखनऊ शिफ्ट हो गये। यहाँ पर वे सुधा पत्रिका के लिए लिखने लगे। इसी दौरान उनकी मुलाकात सुमित्रानंदन पंत से भी हुई थी।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला का साहित्य में स्थान

निराला जी की रचनाओं का प्रथम काव्य-संग्रह ‘अनामिका और दूसरा काव्य-संग्र ‘परिमल’ नाम से छपा था। उसके बाद उन्होंने ‘गितिका, तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा आदि की रचना की।

निराला जी का अंतिम काव्य-संग्रह ‘सांध्यकाकली’ का प्रकाशन सन 1969 ईस्वी में उनके मरणोपरांत हुआ था। लखनऊ में ही उन्होंने गद्य का भी सृजन प्रारंभ किया तथा कई कहानी, निबंध और उपन्यास की भी रचना की।  

लखनऊ में कुछ वर्ष बिताने के बाद वे प्रयागराज आ गये। प्रयागराज में रहकर उन्होंने बेला, नए पत्ते और कुकुरमुत्ता की रचना की। कहा यह भी जाता है की वे इस दौरन कुछ दिनों तक वे अपने ससुराल गढकोला में भी रहे थे।

जहाँ पर उन्होंने ‘बिल्लेसुर’ और ‘बकरिहा’ और ‘कुल्ली भाट’ जैसी रचनायें का सृजन किया। तत्पश्चात उन्होंने ‘अर्चना,’ ‘आराधना’, और ‘गीत गूंज’ नामक गीतों की रचना की। बर्तमान में उनकी सारी रचनायें ‘निराला रचनावली’ के नाम से संग्रहीत की गई है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएं

  • अनामिका (1923), पहला काव्य संग्रह
  • परिमल (1930),
  • गीतिका (1936),
  • द्वितीय अनामिका (1938),
  • तुलसीदास (1938),
  • कुकुरमुत्ता (1942),
  • अणिमा (1943),
  • बेला (1946),
  • नये पत्ते (1946),
  • अर्चना (1950),
  • आराधना (1953),
  • गीतकुंज (1954)
  • संध्याकाकली
  • अपरा

पत्रकारिता

उन्होंने रामकृष्ण मिशन की समन्वय पत्रिका के साथ मतवाला, माधुरी, सुधा आदि पत्रिका का सम्पादन किया।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की भाषा शैली

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की भाषा शैली की सबसे बड़ी विशेषता उनकी रचना में पाये जाने वाला संगितात्मकता और ओज है। उन्होंने कहानी, उपन्यास, काव्य, निबंध सभी जगह अपनी रचना से अमिट छाप छोड़ने में सफल रहे।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता में खड़ी बोली की प्रधानता मिलती हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा एक तरह से खड़ी बोली का मस्तक ऊँचा किया। इस प्रकार हम देखते हैं की ‘निराला जी’ की भाषा शैली अत्यंत ही अनुपम है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मृत्यु

अस्वस्थता के कारण उनका अंतिम समय कष्टपूर्ण रहा। उनके जीवन का अंतिम समय प्रयागराज के दारागंज मोहल्ले में एक छोटे से कमरे में बीता।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 15 अक्टूबर 1961 को अपने नश्वर शरीर को त्याग कर इस दुनियाँ को अलविदा कह गए। हिन्दी साहित्य के लिए किए योगदान के लिए उन्हें हमेशा याद किया जायेगा।

 

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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पुरस्कार

हिन्दी साहित्य के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जी को मरणोपरांत भारत के प्रसिद्ध नागरिक सम्मान “पद्मभूषण“ से अलंकृति किया गया।

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के सम्मान में वर्ष 1976 में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं (suryakant tripathi nirala ki kavita)

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताएं प्रकृति प्रेम को दर्शाता है।सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता में सामंतवादी सोच का आक्रोश साफ दिखाई पड़ता है। उनकी पहली कविता जूही की कली (1916) थी। निराला जी ने अपनी काव्य रचना के माध्यम से कविता को छंद से मुक्ति प्रदान की।

यहॉं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता की कुछ आप सभी के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्नेह-निर्झर बह गया है,
स्नेह-निर्झर बह गया है, रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है-“अब यहाँ पिक या शिखी।
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी , नहीं जिसका अर्थ-जीवन दह गया है॥

“दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल ।
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-ठाट जीवन का वही जो ढह गया है॥

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा; मै अलक्षित हूँ; यही कवि कह गया है ।

जुही की कली – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
फिर क्या? पवन उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन

जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं, चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही,
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,

उपसंहार

उन्होंने अपने कविता में नारी को उचित सम्मान प्रदान किया। उनकी कविता ‘बादल राग’ से भी यह बात प्रमाणित होता है। उनके अंदर तुलसीदास और कबीरदास दोनों की रचनाओं का समन्वय देखने को मिलता है।  

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रश्न उत्तर

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म कब और कहां हुआ था?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म वसंत पंचमी के दिन 1896 ईस्वी में बंगाल के वर्तमान मेदनीपुर जिले में हुआ था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने सबसे पहली पत्रिका का संपादन कब किया था?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने सबसे पहली पत्रिका ‘समन्वय’ का संपादन 1920 में किया था?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला किस काल के कवि हैं?

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का नाम हिन्दी काव्य जगत के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में सुमार हैं। वे सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य जगत में छायावाद के प्रमुख कवि के रूप में जाने जाते हैं।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म किस शहर में हुआ ?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म मेदनीपुर बंगाल में हुआ था।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता कौन सी है?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता जूही की कली है, जिसकी रचना 1916 में हुआ था।

 

 

 

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Maithili Sharan Gupt Biography in Hindi
Maithili Sharan Gupt Biography in Hindi

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt इन हिन्दी ) हिंदी साहित्य के लिए स्वयं में एक युग के समान थे। हिंदी की कई पीढ़ियों को अपने काव्यामृत का प्याला पिलाने वाले गुप्तजी ने हिन्दी काव्य के विकास-चरणों का साक्षी है। वे अत्यंत ही उदार स्वभाव वयक्ति के थे तथा उनके विचारों में गहरी सामाजिक और धार्मिक सहिष्णुता मौजूद थी। गुप्तजी, आचार्य महावीर प्रसाद से वे काफी प्रेरित थे। वे उनको अपना गुरु मानते थे। मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म दिवस 3 अगस्त को प्रतिवर्ष कवि दिवस के रूप में मनाया जाता है। आइये जानते हैं Maithili Sharan Gupt का Biography जीवन परिचय in Hindi

 

 

Maithili Sharan Gupt का Biography जीवन परिचय in Hindi

 

 

मैथिलीशरण गुप्त जी का संक्षिप्त जीवन परिचय– Maithili Sharan Gupt ka jeevan parichay

 

पूरा नाम -मैथिलीशरण गुप्त(Maithili Sharan Gupt)
जन्म की तारीख -03 अगस्त 1886
जन्म स्थान (D. O. B) -चिरगाँव, झाँसी (उत्तर प्रदेश)
माता का नाम (Mother Name) -कशीवाई
पिता का नाम (Father Name) -रामचरण गुप्त
पत्नी का नाम (Wife Name) -ज्ञात नहीं
पेशा – कवि
भाषा -ब्रजभाषा, हिन्दी, संस्कृत, खड़ी बोली  
मुख्य कृतियाँ -पंचवटी, साकेत, जयद्रथ वध, द्वापर, यशोधरा, झंकार, जयभारत
सम्मान – पद्मभूषण, हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार,
निधन 12 दिसंबर 1964, चिरगाँव, झाँसी (उत्तर प्रदेश)

 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय हिंदी में

गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त सन 1886 ईस्वी को उत्तरप्रदेश राज्य के झांसी के पास चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ रामचरण एवं माता  का नाम काशी बाई थी।

 

इनके पिताजी भी एक अच्छे कवि थे जो कनकलता नाम से भक्तिभावपूर्ण काव्य की रचना करते थे। इनेक माता पिता दोनों वैष्णव थे तथा भगवान राम के परम भक्त थे। इनकी आरंभिक शिक्षा स्थनीय स्कूल से ही हुई।

घर में काव्य और भक्ति पूर्ण माहौल का प्रभाव उनके जीवन पर भी पड़ा। हालांकि कहते हैं की उनकी उच्च शिक्षा अधूरी रह गयी थी। उन्होंने घर पर ही अध्ययन के द्वारा हिंदी सहित बांग्ला, मराठी एवं अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया।

उन्होंने मात्र 12 वर्ष की उम्र से ही ब्रजभाषा में काव्य रचना का प्रारंभ कर दिया था। उनका मार्ग दर्शन मुंशी अजमेरी जी ने किया और वे पढ़ाई के साथ काव्य रचना पर ध्यान देने लगे। बाद में उनकी मुलाकात आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से हुई।

 

 

मैथिलीशरण गुप्त जी का साहित्यिक सफर

हिन्दी काव्य जगत में गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान माना जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुप्त जी के प्रेरणा स्रोत बन गये। महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्रेरणा पाकर उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया।

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गुप्त जी ने, द्विवेदी जी को अपना गुरु माना और द्विवेदी जी का वरदहस्त भी हमेशा उनपर रहा। सन 1903 में सरस्वती पत्रिका का सम्पादन महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने आरंभ किया।

तब गुप्त जी की कवितायें खड़ी बोली में इस मासिक पत्रिका में प्रकाशित होना आरंभ हो गई। कहते हैं की मैथिलीशरण गुप्त को महावीरप्रसाद द्विवेदी जी का सनिध्य और मार्गदर्शन का व्यापक असर हुआ।

आचार्य द्विवेदी ने गुप्त जी को कविता लिखने के लिए प्रेरित करते और उनकी रचनाओं को संशोधित कर ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित करते थे। मैथिलीशरण गुप्त की पहली खड़ी बोली की कविता सन 1907 में ‘हेमन्त’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी।

इस शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित होने वाला उनका काव्य संग्रह “रंग में भंग” था। उसके बाद “जयद्रथ वध” और अन्य रचनायें प्रकाशित हुई। हिन्दी में लेखन शुरू करने से पहले उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ, दोहा, चौपाई आदि छंद लिखे।

उनकी ये रचनाएँ कलकत्ता के वैश्योपकारक, मुंबई के वेंकटेश्वर तथा कन्नौज के मोहिनी नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उनकी हिन्दी में लिखी रचनायें इंदु, प्रताप, प्रभा नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं।

प्रताप नामक पत्रिका में उनकी अनेक रचनायें ‘विदग्ध हृदय’ के नाम से प्रकाशित हुईं। कलांतर में उन्होंने अपने पैतृक गाँव चिरगाँव में ही ‘साहित्य सदन’ नामक खुद की प्रेस की स्थापना की और पुस्तकें छापना शुरु किया। झांसी में उन्होंने मानस-मुद्रण की स्थापना की थी।

 

 

मैथिलीशरण गुप्त का साहित्य में स्थान

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का साहित्य में स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने अपनी काव्य साधना से हिन्दी साहित्य को समृद्धि प्रदान की। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को हिन्दी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली का प्रथम प्रसिद्ध कवि माना जाता है।

उनकी प्रमुख रचना भारत-भारती ने आजादी की लड़ाई के दौरान अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसकी प्रभावशाली रचना ने स्वतंत्रता सेनानी के मन-प्राणों को आंदोलित कर उनके मनोबल को ऊँचा उठाने का काम किया।

महात्मा गाँधी भी उनकी इस रचना से बेहद प्रभावित हुए। इस रचना से उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी की उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में पहचान मिल गयी।

 

 

सम्मान व पुरस्कार

जैसा की हम जानते हैं की उनकी कविता भारत-भारती गुलामी की जंजीर में बंधे हुए भारत के लोगों को झकझोरने का काम किया। महात्मा गाँधी उनसे प्रभावित होकर उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि प्रदान की।

उनके अमूल्य योगदान के कारण उन्हें हिन्दी साहित्य में दद्दा की संज्ञा से संबोधित किया जाता था। साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1954 में पदम-भूषण के सम्मान से अलंकृत किया।

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इसके साथ ही उन्हें राज्यसभा का मानद सदस्य भी मनोनीत किया गया था।

 

 

मैथिलीशरण गुप्त का निधन

उनकी मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हृदय गति रुकने से हो गयी।  इस प्रकार 78 वर्ष की अवस्था में हिन्दी साहित्य का जगमगाता सितारा सदा-सदा के लिए आस्थाचाल की ओट में छिप गया।

 

 

मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और रचनाएँ

मैथिलीशरण गुप्त की पहली रचना ‘रंग में भंग’ 1909 ई. में तथा उनकी प्रसिद्ध रचना ‘भारत-भारती’ 1912 ई. में प्रकाशित हुई थी। आईए गुप्त जी की रचनाओं पर प्रकाश डालते हैं।

 

महा काव्य– साकेत, जयभारत

काव्य कृतियाँ– तिलोत्तमा, चजयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, द्वापर, सिद्धराज, कर्बला, किसान, कुणाल गीत, गुरु तेग बहादुर, गुरुकुल,पलासी का युद्ध, झंकार, पृथ्वीपुत्र, शकुंतला, विश्व वेदना, राजा प्रजा, विष्णुप्रिया, उर्मिला, प्रदक्षिणा आदि प्रमुख हैं।

नाटक – रंग में भंग , राजा-प्रजा, वन वैभव , विकट भट , विरहिणी , वैतालिक, शक्ति, सैरन्ध्री , स्वदेश संगीत, हिड़िम्बा , चंद्रहास आदि प्रमुख हैं

 

 

मैथिलीशरण गुप्त की कविताएं व काव्यगत विशेषताएँ

Maithili Sharan Gupt के काव्य रचना में देशप्रेम और राष्ट्रीयता पर जोर दिया गया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में भारत के गौरवशाली इतिहास और संस्कृति का विसद विवेचन प्रस्तुत किया है।

अपनी कविता में उन्होंने पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता प्रदान की है तथा समाज में नारी को विशेष महत्व व स्थान प्रदान किया है। उन्होंने मुक्तक और प्रबंध दोनो काव्य की रचना की। उनकी रचनाओं में शब्द शक्तियों, अलंकारों और मुहावरों का भी यथोचित प्रयोग मिलता है।

भारत भारती में गुलाम भारत की वर्तमान दुर्दशा पर दुख व्यक्त करते हुए गुप्त जी ने भारत के गौरवशाली अतीत का बड़े ही सुंदर ढंग से गुणगान किया। भारत-भारती में गुप्त जी ने भारत के अतीत, वर्तमान, और भविष्य का बड़े ही प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है।

भारत सदिओं से श्रेष्ठ था, है तथा हमेशा रहेगा, का भाव इनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है। Maithili sharan gupt poems भारत भारती में भारत की श्रेष्ठता का वर्णन मिलता है। चलिए पढ़ते हैं उनके द्वारा रचित पंक्ति :-

भू-लोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ? फैला मनोहर गिरी हिमालय और गंगाजल जहाँ। सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है, उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारत वर्ष है।

उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारत वर्ष है। हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है, ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है। भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है,

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भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है, विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है। यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी ‘आर्य’ हैं, यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी ‘आर्य’ हैं,

विद्या, कला-कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं। संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े, पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े।

गुप्त जी ने नारी का जीवन चरित्र का यथार्थ रूप का वर्णन यशोधरा में किया है । 

अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी।  आँचल में है दूध और आँखों में पानी। ।

उन्होंने अपनी रचना यशोधरा में, भगवान बुध का गृह त्याग और यशोधरा के विरह और व्यथा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। जब गौतम बुध रात के अंधेरे में अपनी पत्नी यशोधरा को सोते हुए छोड़कर चले जाते हैं । 

यशोधरा के दिल पर क्या वितति हैं उनका बहुत ही प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। यशोधरा नामक रचना शृंगार रस से ओत पोत है लेकिन शृंगार के अतिरिक्त इसमें करुण, शांत एवं वात्सल्य भी यथास्थान उपलब्ध हैं।

 

 

काव्य का नाम यशोधरा – कुछ अंश

सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात, पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात ।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते, कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना, फिर भी क्या पूरा पहचाना? मैंने मुख्य उसी को जाना, जो वे मन में लाते। सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में क्षात्र-धर्म के नाते, सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,पर इनसे जो आँसू बहते, सदय हृदय वे कैसे सहते? गये तरस ही खाते! सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे, कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे, रोते प्राण उन्हें पावेंगे, पर क्या गाते-गाते ? सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

 

 

गुप्त जी द्वारा युवाओं को प्रेरित काव्य रचना का कुछ अंश

गुप्त जी ने जीवन की सार्थकता के लिए कर्म की प्रधानता पर जोड़ देते हुए लिखते हैं।

Nar ho na nirash karo man ko – कुछ काम करो, कुछ काम करो।

नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो, जग में रह कर कुछ नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो, समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो, कुछ तो उपयुक्त करो तन को नर हो, न निराश करो मन को। कुछ काम करो, कुछ काम करो, जग में रह कर कुछ नाम करो।

मैथिलीशरण गुप्त की माता का क्या नाम था?

मैथिलीशरण गुप्त की मृत्यु कब हुई

मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि क्यों कहा जाता है?

मैथिलीशरण गुप्त का मूल नाम क्या है?

मैथिलीशरण गुप्त जी का स्वर्गवास कब हुआ था?
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म स्थान क्या है ?

 

 

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Sumitranandan Pant का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Sumitranandan Pant biography in Hindi
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सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय एवं रचनाएँ उन्हें से पता चलता है की उन्हें प्रकृति से गहरा लगाव था। इसीलिए उन्हें ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है। सुमित्रानंदन पंत का जन्म प्राकृतिक सुषमा के मध्य अल्मोड़ा में हुआ था। सुमित्रानंदन पंत का जन्म स्थान अल्मोड़ा पर्वतों के बीच स्थित बड़ा ही सुंदर स्थल है। इस कारण बचपन से ही वे पर्वतों के अनुपम सौन्दर्य से प्रभावित थे। Sumitranandan Pant का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi सुंदर सौम्य चेहरा, घूघराले बाल उनके व्यक्तित्व को बेहद ही आकर्षक बनाते थे। सुमित्रानंदन पंत का साहित्य में स्थान सर्वोपरी है। सुमित्रानंदन पंत जी अरविन्द, कार्ल मार्क्‍स, रवींद्र नाथ टैगोर, और महात्मा गांधी जी से बेहद प्रभावित थे। सुमित्रानंदन पंत छायावादी युग के कवि थे। उन्हें हिन्दी साहित्य का विलियम वर्ड्सवर्थ कहा जाता है। Sumitranandan Pant biography in Hindi

 

कहते हैं की सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ‘अमिताभ’ नाम उन्होंने ही दिया था। वे 1950 से 1957 ईस्वी तक आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे। वे अरविन्द के वेदान्त दर्शन से भी प्रभावित थे। इस कारण उन्होंने उम्र भर अविवाहित जीवन व्यतीत किया। ज्ञानपीठ, पद्मभूषण और साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कारों से सम्मानित पंत जी की रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ-साथ प्रकृति की सुषमा का अद्भुत वर्णन मिलता है। तो चलिए Sumitranandan pant ka jeevan parichay को विस्तार से जानते हैं

 

Sumitranandan Pant biography in Hindi

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय एवं रचनाएँ (Sumitranandan Pant Biography In Hindi )

 

सुमित्रानंदन पंत जन्म 20 मई 1900 ईस्वी को उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के रमणीय स्थल कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम गंगादत्त पंत था। पंत जी के पिता स्थानीय चाय बागान में ही मैनेजर के रूप में कार्य करते थे।

सुमित्रानंदन पंत की माता का नाम सरस्वती देवी (Saraswati Devi) थी। बाल्यावस्था में ही उनके माता का निधन हो गया था। कहा जाता है की जन्म के महज छह घंटे के अंदर ही उनकी माता जी मृत्यु हो गई।

फलतः पंतजी का लालन पालन उनकी दादी के द्वारा हुआ। सुमित्रानंदन पंत की पत्नी का नाम ज्ञात नहीं है। क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की थी।

सुमित्रानंदन पंत का वास्तविक नाम गोसाई दत्त था। बाद के दिनों में उनका नाम सुमित्रानंदन पंत हो गया। जो कलांतर में हिन्दी साहित्य में पंत जी के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

 

शिक्षा दीक्षा

उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव के ही विध्यालय से हुई थी। बाद में उनका नामांकन वाराणसी के क्वींस कॉलेज में हुआ। जहॉं से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद वे प्रयागराज (इलाहाबाद ) आगे की पढ़ाई के लिए चले गये।

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प्रयागराज में ही उनका झुकाव कविता के तरफ हुआ। इसी बीच कर्ज की बोझ तले उनके पिता का निधन हो गया, उन्हें कर्ज चुकाने के लिए अपने जमीन और घर तक बेचना पड़ा।

इस दौरान वे मार्क्स के विचारधारा के प्रभाव से प्रभावित हो गये थे। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने विदेशी स्कूलों का बहिष्कार कर दिया। जिससे उन्हें अपनी पढ़ाई इन्टर में ही बंद करनी पड़ी।

उसके बाद उन्होंने अपने घर पर में ही अंग्रेजी, हिन्दी,बंगाल, संस्कृत का गहन अध्ययन कर निपुणता प्राप्त कर ली। उनकी पहली कविता रचना 1916 में प्रकाशित हुई, तव से वे जीवन पर्यंत काव्य साधना में ही लगे रहे।

 

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय

उनकी रचनाओं में प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य का वर्णन देखने को मिलता है। बचपन से ही उन्हें प्राकृतिक सौन्दर्य के ऊपर काव्य की रचना में रुचि थी। प्रकृति से ज्यादा लगाव के कारण ही उन्हें ‘प्रकृति का सुकुमार कवि’ कहा जाता है।

 

सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएँ

उच्छवास (1920) ग्रन्थि (1920) वीणा (1927) पल्लव (1928) गुंजन (1932), युगांत, युगवानी, ग्रामया, स्वर्णकीरण, स्वर्णधुली तथा उत्तरा आदि।  जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने ‘लोकायतन‘ नामक महाकाव्य की रचना की।

‘पल्लव’ पंतजी की सबसे महत्वपूर्ण काव्य रचना है। पल्लव उनकी सर्वश्रेष्ठ दर्शनिकतापूर्ण काव्य संग्रह है जिसमें एक तारा, परिवर्तन, नौका विहार प्रमुख है। 

 

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय भाव पक्ष कला पक्ष

प्रकृति के सुकुमार कवि उपनाम से प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत जी छायावादी युग के महान कवियों में से एक हैं। बचपन से ही उन्होंने कविता रचना शुरू कर दिया था। कहा जाता है की 7 वर्ष की आयु से ही इन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था।

उनकी कविता में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों की प्रधानता देखने को मिलती है। इनकी प्रथम रचना वर्ष 1916 में लिखी गई ‘गिरजे का घंटा’ मानी जाती है।

पन्तजी जी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण माना जाता है। सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं को बड़ा ही सुंदर रूप से वर्णन किया है।

प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलता है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं।

 

सम्मान व पुरस्कार

सन 1958 ईस्वी में उन्हें अपनी रचना चितम्बरा के लिए साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत को भारत सरकार ने 1961 ईस्वी में पदभूषण की उपाधि भी प्रदान की।

उनकी कृति ‘कला और बूढ़ा चाँद‘ के लिए उन्हें सन 1960 ईस्वी में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। प्रमुख रचना लोकायतन के लिए भी उन्हें प्रसिद्ध पुरस्कार ‘सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। 

सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु कब हुई

उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष प्रयागराज में बिताए। सुमित्रानंदन पंत का देहांत 28 दिसंबर 1977 ईस्वी को प्रयागराज में हुआ।

 

 

उनकी समृति में स्मारक की स्थापना

उतराखंड के अल्मोड़ा जिले के जिस गाँव में उनका जन्म हुआ था उस घर को एक संग्रहालय का रूप दे दिया गया है। उस संग्रहालय में उनके कुछ काव्य की पांडुलिपि, ज्ञानपीठ पुरस्कार में प्रदान किए गये प्रशंसित पत्र रखे हुए हैं।

इसक अलावा इस संग्रहालय में हरिवंश राय बच्चन और कालाकांकर के कुँवर सुरेश सिंह  के साथ पत्र व्यवहार की प्रतिलिपि भी सुरक्षित रखी हुई है। इस संग्रहालय का नाम ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ रखा गया है।

 

सुमित्रानंदन पंत की कविताएँ के कुछ अंश – Sumitranandan Pant Poems in Hindi

काव्य का शीर्षक – झर पड़ता जीवन डाली से

झर पड़ता जीवन-डाली से मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात! केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात!

मधु का प्रभात!–लद लद जातीं वैभव से जग की डाल-डाल, कलि-कलि किसलय में जल उठती सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!

नव मधु-प्रभात!–गूँजते मधुर उर-उर में नव आशाभिलास, सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से भर जाता सूना महाकाश!

आः मधु-प्रभात!–जग के तम में भरती चेतना अमर प्रकाश, मुरझाए मानस-मुकुलों में पाती नव मानवता विकास!

मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित नाचती धरित्री मुक्त-पाश! रवि-शशि केवल साक्षी होते अविराम प्रेम करता प्रकाश!

मैं झरता जीवन डाली से साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात! फिर से जगती के कानन में आ जाता नवमधु का प्रभात!

सुमित्रानंदन पंत की कविता पतझड़

 

काव्य का शीर्षक – सुख-दुख

सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन !

मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर-दुख, सुख दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख !

जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से, मानव-जग में बँट जाएँ दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न, अविरत सुख भी उत्पीड़न; दुख-सुख की निशा-दिवा में, सोता-जगता जग-जीवन !

यह साँझ-उषा का आँगन, आलिंगन विरह-मिलन का; चिर हास-अश्रुमय आनन रे इस मानव-जीवन का !

 

 

सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ (poems of Sumitranandan pant in hindi )

काव्य का शीर्षक– मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को!

तज कर तरल-तरंगों को,इन्द्र-धनुष के रंगों को, तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन? भूल अभी से इस जग को!

कोयल का वह कोमल-बोल, मधुकर की वीणा अनमोल, कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन? भूल अभी से इस जग को!

ऊषा-सस्मित किसलय-दल, सुधा रश्मि से उतरा जल, ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन? भूल अभी से इस जग को!

 

काव्य का शीर्षक– अमर स्पर्श

खिल उठा हृदय, पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय! खुल गए साधना के बंधन, संगीत बना, उर का रोदन,

अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण, सीमाएँ अमिट हुईं सब लय। क्यों रहे न जीवन में सुख दुख क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?

तुम रहो दृगों के जो सम्मुख प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय! तन में आएँ शैशव यौवन मन में हों विरह मिलन के व्रण,

युग स्थितियों से प्रेरित जीवन उर रहे प्रीति में चिर तन्मय! जो नित्य अनित्य जगत का क्रम वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,

हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम, जग से परिचय, तुमसे परिणय! तुम सुंदर से बन अति सुंदर आओ अंतर में अंतरतर, तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर वरदान, पराजय हो निश्चय!

 

 

हमें आशा है की सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय एवं रचनाएँ हिंदी में आपको जरूर अच्छी लगी होगी, अपने विचार से अवगत करायें।

सुमित्रानंदन पंत का अंतिम काव्य है?

सुमित्रानंदन पंत का अंतिम काव्य लोकायतन‘ को माना जाता है।

सुमित्रानंदन पंत किस युग के कवि थे ?

सुमित्रानंदन पंत छायावादी युग के कवि थे।

सुमित्रानंदन पंत को ज्ञानपीठ पुरस्कार कब मिला था?

पंत जी को सन 1958 ईस्वी में उनकी रचना ‘चितम्बरा‘ के लिए साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ प्राप्त हुआ।

पंत की पहली कविता कौन सी है?

सुमित्रानंदन पंत की पहली कविता वीणा मानी जाती है। जिसकी रचना उन्होंने 1918 में किया था।

 

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Raja Jai Chandra का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Raja Jai Chandra Biography in Hindi
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भारत का सबसे बड़ा गद्दार के नाम से राजा जयचंद को जाना जाता है। आज भी धोखेबाज देशद्रोही करने वाले व्यक्ति को जयचंद कहकर पुकारा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार राजा जयचंद पृथ्वीराज चौहान के मौसेरे भाई थे. लेकिन कुछ लोगों के अनुसार जयचंद की बेटी संयोगिता से पृथ्वीराज चौहान ने विवाह किया था। इन सब के बावजूद जयचंद और पृथ्वीराज चौहान के बीच बहुत अधिक मतभेद था, दोनों के बीच बहुत सारे युद्ध भी हुए थे। लेकिन क्या वजह रही कि जयचंद को गद्दार कहा जाने लगा वैसे इतिहास में कई ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिसके अनुसार जयचंद गद्दार नहीं है। चलिए जानते हैं जयचंद कौन थे, इनका इतिहास, जन्म, युद्ध, मृत्यु, शासनकाल आदि से जुड़ी हुई सभी जानकारी। Raja Jai Chandra का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

 

Raja Jai Chandra का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

राजा जयचंद कौन थे (Raja Jai Chandra Kaun Tha)

राजा जयचंद गढ़वाल जाति के एक राजा थे। उनके पिता का नाम विजय चंद्र था और इन के दादा का नाम गोविंद चंद्र था। राजा जयचंद उत्तर भारत की गढ़वाल वंश से थे। राजा जयचंद 21 जून 1170 ईस्वी में राजा बने थे और शासनकाल शुरू किया था। राजा का शासनकाल 1194 तक रहा। राजा जयचंद के पिता विजय चंद्र ने अपने जीवन काल में अपने पुत्र जयचंद्र को कन्नौज का राज काल सौंप दिया था। महाकवि पृथ्वीराज रासो के अनुसार दिल्ली के राजा अंगद पानी की पुत्री के पुत्र थे जयचंद। राजा जयचंद के दो बच्चे थे बेटा हरिश्चंद्र और बेटी संयोगिता। 

 

राजा जयचंद का साम्राज्य (Raja Jai Chandra Empaire)

राजा जयचंद बहुत वीर और प्रतापी राजा हुआ करते थे। उन्होंने अपने नेतृत्व में अपने राज्य कन्नौज का बहुत अधिक विस्तार किया था। राजा जयचंद के शासनकाल में कन्नौज राज्य बहुत तेजी से उन्नति कर रहा था और उसका विस्तार भी बहुत तेजी से हुआ था। राजा जयचंद कन्नौज के साथ-साथ बनारस में भी बहुत अधिक काम किए थे। इन्होंने अपने राज्य में बहुत सारे किलो का निर्माण कराया था। 

 

राजा जयचंद की कहानी (Raja Jai Chandra Story)

राजा जयचंद और पृथ्वीराज चौहान के बीच मतभेद का कारण (Raja Jai Chandra vs Prithviraj Chauhan)

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेम कहानी के बारे में तो आपने सुना ही होगा। संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री थी। पृथ्वीराज चौहान एक महान विद्वान राजा थे जो बहुत अधिक तेजी से अपने साम्राज्य को बढ़ा रहे थे संयोगिता ने जब उनके बारे में सुना तो मन ही मन उनसे प्रेम कर बैठी। राजा जयचंद पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के प्रेम के सख्त खिलाफ थे इसलिए उन्होंने संयोगिता का जल्द से जल्द विवाह करना चाहा। इसके लिए उन्होंने एक अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जिसके अंत में स्वयंवर की भी घोषणा की। स्वयंबर के लिए देश के बड़े-बड़े महान वीर राजाओं को निमंत्रण भेजा गया लेकिन पृथ्वीराज चौहान को नहीं बुलाया गया। जयचंद पृथ्वीराज चौहान को बिल्कुल नहीं पसंद करते थे उन्होंने उनका अपमान करने के लिए अपने महल के बाहर द्वारपाल के स्थान पर लोहे की मूर्ति बनवाई और उसे स्थापित कर दिया। संयोगिता पृथ्वीराज चौहान से ही प्रेम करती थी तो उन्होंने स्वयंवर के दौरान उनकी मूर्ति को ही वरमाला पहना दी इसी बीच पृथ्वीराज चौहान स्वयं वहां पहुंच जाते हैं और संयोगिता को अपने घोड़े पर बैठा कर भगा लेते हैं। 

पृथ्वीराज की इस हरकत के बाद राजा जयचंद बहुत अधिक गुस्से में आ गए और उनके खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। दोनों के बीच कई बार युद्ध हुआ लेकिन हर बार राजा जयचंद को हार का सामना करना पड़ा। बेटी को भगा ले जाने की वजह से दोनों राजाओं के बीच में मतभेद बहुत अधिक बढ़ गया। पृथ्वीराज चौहान ने संयोगिता से जिस तरह से विवाह किया था उस वजह से बड़े-बड़े राजपूत राजाओं ने भी पृथ्वीराज चौहान से मुंह मोड़ लिया था और अलग हो गए थे। 

राजा जयचंद अपमान का बदला चाहते थे 

  • जयचंद अपनी बेटी के दुख में और पृथ्वीराज चौहान के द्वारा युद्ध में हार की वजह से अपमान की आग में झुलस रहे थे वह पृथ्वीराज चौहान से हर कीमत में बदला लेना चाहते थे। इसी वजह से वह पृथ्वीराज चौहान के सबसे बड़े दुश्मन मोहम्मद गौरी से जा मिले। मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान का सबसे बड़ा दुश्मन था राजा पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को लगातार 13 बार युद्ध में हराया था और वह उन्हें हर बार माफी कर देते थे। 
  • कहते है ना कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है यही कहावत यहां सही साबित हुई। पृथ्वीराज चौहान के दोनों दुश्मन राजा जयचंद और मोहम्मद गौरी एक साथ मिल गए दोनों का मकसद एक ही था पृथ्वीराज चौहान को हराकर उनका राज्य हासिल करना। 
  • राजा जयचंद ने मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ युद्ध के लिए न्योता दिया और अपना सैन्य बल देने का भी वादा किया। मोहम्मद गौरी राजा जयचंद की बात मान जाता है। जब यह बात राजा पृथ्वीराज को पता चली तो उन्होंने अन्य राजपूत राजाओं से मदद मांगी लेकिन किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया। 
  • इन सब के बावजूद पृथ्वीराज चौहान के पास एक विशाल सैनिकों की सेना थी उनके पास 300000 सैनिक थे जबकि मोहम्मद गौरी के पास केवल 120000 ही थे। अतः 1192 में तराइन का दूसरा युद्ध हुआ। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के सैकड़ों सैनिक मारे गए तथा अंत में उनकी हार हुई और उन्हें बंदी बना लिया गया। 
  • पृथ्वीराज चौहान की हार मुगल शासकों के लिए एक बहुत बड़ी जीत थी जिसके बाद मोहम्मद गौरी ने कुतुबुद्दीन को भारत का शासक नियुक्त कर दिया। 

 

राजा जयचंद को मोहम्मद गौरी का साथ देना पड़ा भारी (Raja Jai Chandra and Mohammad Gauri)

मुस्लिम शासक मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद शांत नहीं बैठा। उसने भारत के सम्राट को हासिल करने के लिए अपने साथी जयचंद को ही निशाना बना लिया। कुतुबुद्दीन के साथ मिलकर मोहम्मद गौरी ने कन्नौज सामराज्य पर आक्रमण कर दिया जिसके बाद दोनों के बीच एक युद्ध हुआ। युद्ध में स्वयं राजा जयचंद आते हैं जहां उन्हें तीर लगने की वजह से उनकी मृत्यु हो जाती है। इन्हीं कारणों की वजह से ही राजा जयचंद को गद्दार कहा जाता है क्योंकि उनकी वजह से पृथ्वीराज चौहान को हार का सामना करना पड़ा था। 

 

राजा जयचंद गद्दार नहीं थे

ऊपर बताए गए बात से तो यही साबित होता है कि राजा जयचंद गद्दार हुआ करते थे लेकिन बहुत से इतिहासकार इस बात को नहीं मानते हैं और प्रमाण देते हैं कि राजा जयचंद गद्दार नहीं थे। एक इतिहासकार के अनुसार संयोगिता राजा जयचंद की पुत्री नहीं थी। अगर इसे मान लेते हैं तो पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के बीच का प्रेम और उनकी शादी गलत साबित होती है। जब यह गलत साबित होती है तो राजा जयचंद और पृथ्वीराज चौहान के बीच का मतभेद भी गलत होता है और जय चंदवारा अपमान का बदला लेने के लिए गौरी का साथ देना भी गलत साबित हो जाता है। कहा जाता है कि राजा जयचंद ने मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए बुलावा भेजा था लेकिन इस बात को प्रमाण करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं मिलते हैं। 

इन सब कारणों की वजह से कहा जाता है कि राजा जयचंद को सिर्फ कहानियों में ही गद्दार कहा गया है लेकिन इतिहास के पन्नों में उसका कोई भी प्रमाण तथ्य नहीं देखने को मिला है। 

 

पृथ्वीराज  मूवी (Prithviraj Movie)

अक्षय कुमार मानुषी चिल्लर द्वारा बनी फिल्म पृथ्वीराज चौहान जनवरी 2022 में आने वाली है। फिल्में में जयचंद्र के किरदार को भी दिखाया गया है जिसे आशुतोष राणा द्वारा निभाया गया है। देखना दिलचस्प होगा कि फिल्म में जयचंद के किरदार को किस तरह फिल्माया गया है उन्हें एक गद्दार के रूप में बताया गया है या फिर नहीं। 

 

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Mohenjo Daro का इतिहास in Hindi

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Mohenjo Daro history in Hindi
Mohenjo Daro history in Hindi

मोहन जोदड़ो नामक शहर आज भी सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे well planned city के रूप में जाना जाता है | वैसे तो ये नगर एक लम्बे अरसे पहले ध्वस्त हो चुका है और आज के समय में यहाँ सिर्फ उस पुराने सुव्यवस्थित शहर के अवशेष ही बचे रह गए हैं | इतना पुराना शहर होने के बावजूद ये इतना सुव्यवस्थित था कि आज इतिहासकार भी इसे देखकर हैरान रह जाते हैं कि सदियों पहले हमारे पूर्वजों ने ऐसा शहर कैसे बसा लिया | जिसके जैसी नगर व्यवस्था के आस पास हम इतने modern होने के बावजूद आज भी नहीं पहुँच पाए हैं | Mohenjo Daro का इतिहास in Hindi 

 

Friends, अगर आपने पहले इस शहर के बारे में ना सुना हो तो ऐसा हो सकता है कि आपको भी यकीन ना हो कि ऐसा कोई शहर भी इतिहास में रहा होगा. पर ये पूरी तरह सच है. कई बार हमारे पूर्वज हमें हैरान करते आये हैं और सिंधु घाटी सभ्यता के हजारों नगर उन्हीं उदाहरणों में से एक है. और सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों की list में शायद अव्वल स्थान पर होगा मोहन जोदड़ो. आखिर क्या थी इस शहर की खूबियाँ, आइये जानते हैं इस शहर का पूरा इतिहास |

 

Mohenjo Daro का इतिहास in Hindi

 

मोहन जोदड़ो का इतिहास Mohenjo daro History in Hindi

Pakistan के Larkana जिले में स्थित मोहन जोदड़ो इतिहास में हमारी प्राचीन संस्कृति का गौरव था.

यहाँ मिले अवशेषों को देखकर आज भी ये शहर उतना ही जीवंत लगता है जैसा कि शायद सदियों पहले कभी रहा होगा.

सबसे पहले बात करते है इसके नाम की. दोस्तों मोहन जोदड़ो शब्द का सही pronunciation है “मुअन जो दड़ो“.

ये एक सिंधी भाषा का शब्द होता है जिसका मतलब होता है मुर्दों का टीला.

इस शहर को सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे परिपक्व सुनियोजित और सुव्यवस्थित शहर माना जाता है.

Archeologists का कहना है कि ये शहर 2600 से 1900 ईसा पूर्व के बीच फला फूला.

ये भी कहा जाता है कि इस समय में इस शहर में दुनिया के सबसे अमीर, समृद्ध, शिक्षित लोग और व्यापारी रहा करते थे.

ये नगर कितने बड़े area में फैला हुआ था इस बात का अंदाजा तो आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आज भी इस नगर के अवशेष हमें लगभग 125 हेक्टेयर के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं.

यहाँ सबसे ज्यादा हैरान करने वाली चीज हैं यहाँ कि ईटें. इन ईटों को देखने के बाद आपको ऐसा लगेगा ही नहीं कि आप हजारों साल पुराने किसी शहर, जो कि अब खंडहर बन चुका है उसके बीच खड़े हैं.

क्योंकि यहाँ कि ईटें बिल्कुल वैसी ही है जैसी हम आज हजारों सालों के बाद इस्तेमाल करते हैं.

दोस्तों वैसे तो हमें इस नगर के अवशेष खोजे हुए भी लगभग एक सदी का समय गुजर गया है लेकिन आज भी ये शहर हमारे सामने तमाम रहस्यों को लेकर खड़ा हुआ है.

मोहन जोदड़ो की खोज

बात 1911 की है जब एक दिन सिंधु नदी के रास्ते यात्रा करते हुआ प्रोफेसर D.R. Bhandarkar की नजर एक खंडहर पर पड़ी.

जब उन्होंने इस जगह का निरीक्षण किया तो उन्हें पता चला कि वहाँ एक बौद्ध स्तूप के अवशेष हैं. उसके बाद यहाँ मिले कुछ सिक्कों के अवशेष को लेकर वो sir John marshal के पास गए.

Marshal उस समय Indian archeological survey department के head हुआ करते थे. उस समय वो हड़प्पा का निरीक्षण कर रहे थे. उन्होंने मोहन जोदड़ो में भी दिलचस्पी दिखाई.

इसके बाद Marshal ने वहाँ का निरीक्षण किया तो पता चला वहाँ और भी प्राचीन अवशेष हो सकते हैं.

इसके बाद 1922 में Sir Rakhldas Banerjee की निगरानी में मोहन जोदड़ो में आधिकारिक तौर पर excavation का काम शुरू हुआ.

और इस excavation कार्य के दौरान इतिहासकारों को बड़ी मात्रा में इमारतें, मिट्टी के बर्तन, metal की बनी हुई मूर्तियाँ, और उस समय प्रयोग किये जाने वाले सिक्के मिलने लगे.

इन अवशेषों के मिलने से ये भी साफ हो गया था कि यहाँ मिलने वाली buildings, ये मूर्तियाँ, सिक्के और बौद्ध स्तूप और सिक्के अलग अलग समय और अलग अलग सभ्यताओं के अवशेष हैं.

Archeologists ये अनुमान लगाते हैं कि बौद्ध स्तूप को दूसरी शताब्दी के आस पास बनाया गया होगा वहीं मोहन जोदड़ो शहर का निर्माण 2600 ईसा पूर्व तक हो गया होगा.

इतना पुराना होने के बावजूद इस शहर का ढाँचा आज भी मजबूत है ये बात तो पुरातत्वविदों को भी हैरान करती आई है.

हालांकि सिर्फ शहर के ढाँचे की मजबूती ही ऐसी चीज नहीं है जो हमें हैरान करती है बल्कि इस शहर की अन्य खूबियाँ भी है जो archeologists के साथ साथ हमारे भी होश उड़ाती है.

The Great Bath

इस शहर में बना जल कुंड जो The Great Bath के नाम से जाना जाता है. जो कि लगभग 40 फुट लंबा, 25 फुट चौड़ा और लगभग 7 फुट गहरा है.

इस कुंड में उतरने के लिए उत्तर और दक्षिण दिशा में सीढियाँ बनाई गयी है. इसके अलावा कुंड के पास आठ स्नानघर भी बने हुए हैं.

दोस्तों यहाँ निरीक्षण से साफ पता चलता है कि इस कुंड को काफी समझदारी से बनवाया गया था. इसमें लगी ईटें आज भी काफी मजबूत हैं.

और तो और बाहर से आने वाले गंदे पानी और impurities को रोकने के लिए इसके तल और किनारे पर चूने और चिरोड़ी के बने गारे का भी इस्तेमाल किया गया था.

इसके अलावा यहाँ पानी की व्यवस्था के लिए कुएँ और गंदा पानी बाहर निकालने के लिए पक्की ईटों से बनी नालियाँ भी बनाई गयी हैं.

और खास बात ये है कि इन नालियों को पक्की ईटों से ही ढका भी गया है. दोस्तों इस शहर की पहचान उसकी मजबूत ईटें और ढकी हुई नालियाँ ही हैं क्योंकि ऐसा कुछ किसी प्राचीन शहर में पहले कभी नहीं देखा गया है.

इसके अलावा इतिहासकार ये भी मानते हैं कि संपूर्ण इतिहास में सिंधु घाटी सभ्यता ही वो पहली सभ्यता है जहाँ के लोगों ने कुएँ खोद कर पानी निकालना सीख लिया था.

इसके अलावा यहाँ कि बेहतरीन जल प्रणाली, कुएँ एवं नालियों को देखते हुए ये भी कहा जाता है कि यहाँ के लोग असल मायने में जल अभियंता थे.

खुदाई के बाद मिले अवशेषों से ये भी पता चलता है कि यहाँ के लोग खेती करना और पशु पालना भी सीख चुके थे.

यहाँ पर गेहूं, चना, जौ, और सरसों की खेती के प्रमाण मिलते हैं. इसके साथ ही दुनिया में सूत के दो सबसे पुराने कपड़ों में से एक के यहीं पर होने के साक्ष्य मिले हैं.

मोहन जोदड़ो नगर की व्यवस्था

इस नगर की सड़कें grid योजना के तहत बनाई गयी थी. जो कि एक दूसरे को 90 degree के angle पर काटती हैं.

ये पूरा का पूरा शहर दो भागों में विभाजित हैं. इनमें से एक भाग में उस समय नगर के रईस लोग रहा करते होंगे. इस भाग को रईसों की बस्ती या फिर दुर्ग कहा जाता है.

वहीं दूसरा हिस्सा जहाँ मध्यम वर्ग के लोग रहा करते थे उसे निचला नगर कहा जाता है.

दुर्ग वाले हिस्से पर बड़े बड़े मकान चौड़ी सड़कें और कई सारे कुएँ हैं. वहीं निचले भाग में छोटे आकार के मकान,  और छोटी सड़कें हैं.

निचले हिस्से में सड़क के दोनों तरफ घर बने हुए हैं. इन घरों का पिछला हिस्सा सड़क की तरफ है और इनके दरवाजे गलियों में खुलते हैं.

इसके अलावा यहाँ पर एक museum जैसी जगह भी है जहाँ पर बर्तन, मोहरे, वाद्ययंत्र, आभूषण, दिये, औजार, खिलौने आदि रखे हुए हैं.

Archeologists ये अनुमान लगाते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में अनुशासन हथियारों के दम पर नहीं बल्कि बुद्धि के बल पर स्थापित किया गया था.

ऐसा इसलिए कि यहाँ पर औजार तो कई सारे मिले हैं लेकिन हथियार एक भी नहीं. और ऐसा सिर्फ तभी संभव है जब यहाँ के लोग हथियारों का इस्तेमाल करते ही ना हो.

यहाँ के लोग कला और सृजन के महत्व को भी अच्छी तरह समझते थे. वो सिर्फ वस्तु कला में निपुण नहीं थे बल्कि मिट्टी के बर्तनों पर बनी इंसानों और जानवरों की आकृतियाँ, धातु की मूर्तियाँ, इसके अलावा चित्रों पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ ये दर्शाती है कि यहाँ के लोग कला के महत्व को भी समझते थे और ये भी बताता है कि ये लोग  सिर्फ तकनीक नहीं, बल्कि कला के मामले में भी काफी आगे थे.

सिंधु घाटी सभ्यता की खासियत उसका सौंदर्य बोध है जो ये इशारा करता था कि ये किसी भी राजा या फिर धर्म के द्वारा पोषित सभ्यता नहीं थी.

वो लोकतंत्र द्वारा पोषित था. यही वजह है कि इस सभ्यता को अपने समय की सबसे उन्नत और पोषित सभ्यता माना जाता है.

हालांकि अभी हम सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में सबकुछ नहीं जानते. ये सभ्यता इतनी बड़ी है कि इसका उत्खनन करने में ही कितना समय लगेगा इस बात का अंदाजा अब इसी बात से लगा सकते हैं कि लगभग एक साल के excavation कार्य के बाद हम यहाँ का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही खोद पाए हैं.

बाकी की सभ्यता के साथ साथ उसके गहरे राज आज भी जमीन के अंदर दफन हैं. जो कब बाहर आयेंगे पता नहीं.

क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता का ज्यादातर हिस्सा Pakistan में है और फिलहाल वहाँ की सरकार के उत्खनन का काम बंद करवा रखा है. जो कब शुरू होगा पता नहीं.

लेकिन अभी तक सिंधु घाटी सभ्यता का जो हिस्सा हम discover कर पाएं हैं वो ही हमारे होश उड़ाने के लिए काफी है.

यहाँ कुंड के किनारे स्नान घरों का बना होना ही अपने आप में unique है क्योंकि ऐसा कुछ तो हम आज तक इतने modern और विकसित होने के बावजूद नहीं कर पाए हैं.

इतना ही नहीं. यहाँ जो स्नान घर बने हुए थे उनके दरवाजे एक दूसरे से विपरीत दिशा में खुलते थे.

इसके अलावा यहाँ का drainage system भी बेमिसाल था. यहाँ गंदे पानी के निकास की पुरी व्यवस्था थी.

नलियों का ढका होना भी ये दर्शाता है यहाँ के लोग जानते थे दूषित जल से बीमारियाँ पनप सकती हैं.

ये शहर पूरी planning के साथ बसाया गया था और सच कहा जाए तो आज की तारीख में भी शायद ही कोई शहर इतने सुनियोजित ढंग से बसाया गया हो.

और यही बात पुरातत्वविदों को हैरान करती है. दोस्तों इसके अलावा एक आश्चर्यजनक बात ये भी है, जैसा कि यहाँ घरों में भी कुएँ बने हुए थे.

और उन कुओं को भी बाहर की ओर बनाया गया था. ताकि यहाँ से गुजरने वाला राहगीर भी प्यासा होने पर उससे पानी पी सके.

लेकिन ये विकसित सभ्यता कैसे खत्म हुई इसके बारे में हमें कोई ठोस जानकारी नहीं मिली है.

तो दोस्तों ये थी मोहन जोदड़ो के इतिहास के बारे में संपूर्ण जानकारी. इस सुनियोजित सभ्यता के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?  आपको क्या लगता है इतनी विकसित सभ्यता कैसे खत्म हुई होगी? आपको मोहन जोदड़ो शहर की को बात ने सबसे ज्यादा हैरान किया?

 

 

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Joshimath History in Hindi

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Joshimath History in Hindi
Joshimath History in Hindi

जोशीमठ के मकानो और सड़कों में बड़ी बड़ी दरारें देखकर आपको लगेगा की यहाँ कोई भूकंप आया था | लेकिन इस प्राचीन शहर में ये बड़ी बड़ी दरारें किसी भूकंप की वजह से नहीं बल्कि लैंडस्लाइड की वजह से आई हैं | जोशीमठ का इतिहास इतना स्वर्णिम है कि इसे इस तरह बर्बाद होते देखना मुश्किल है | इस लेख में हम जानेंगे जोशीमठ का इतिहास, जोशीमठ कहां है, जोशीमठ नरसिंह मंदिर के बारे में, जोशीमठ के शंकराचार्य के बारे में और जोशीमठ क्या है? जोशीमठ की दरारों को देखकर लगता है मानो हम बड़ी तेज़ी से विनाश की और बढ़ रहे हैं | Joshimath History in Hindi

 

Joshimath History in Hindi

ऐसा लग रहा है की थोड़े समय में ही जोशीमठ की पूरी ज़मीन धँस जाएगी और ये शहर मिट्टी में समा जाएगा | इसरो ने जोशीमठ की सेटेलाइट इमेज रिलीज की हैं जिसमें दिखाई दे रहा है की सिर्फ़ 12 दिनों में जोशीमठ की ज़मीन 5.4 सेंटीमीटर धँस गई है |  उत्तराखंड के इस प्राचीन शहर और गेटवे ऑफ हिमालया के नाम से प्रसिद्ध जोशीमठ पर मंडरा रहे ख़तरे ने सरकारों को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है |  678 मकानो में दरारें आने से लोग दहशत में है और सरकार ने इन घरों को रहने के लिए अनफिट घोषित कर दिया है   जोशीमठ के बारे में अब सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है लेकिन यहाँ दरारें आने का सिलसिला बीते साल नवंबर से शुरू हो गया था | 

 

 

अब यहाँ की मुख्य सड़क में दरार आने के बाद मीडिया का ध्यान इसकी ओर गया है  

घरों और सड़कों में दरारें आ जाने के बाद स्थानीय लोगों ने हाथों में मशालें लेकर जुलूस निकाला ताकि सरकार को जगाया जा सके.  इसी साल 6 जनवरी को यहाँ के मारवाड़ी वॉर्ड में जमीन से पानी के फन्न्वारे फुट गये जिसके बाद 35 घरों को तुरंत खाली करवाया गया. अब लोगों को दूसरी जगह शिफ्ट करने का सिलसिला लगातार जारी है | आइये जानते हैं

जोशीमठ नरसिंह मंदिर का इतिहास

जोशीमठ ही वो जगह है जहाँ भगवान नरसिंह का मंदिर है | नरसिंह, भगवान विष्णु के ही अवतार थे और जब भगत प्रहलाद ने भगवान विष्णु को पुकारा था तो उन्होने नरसिंह के रूप में प्रहलाद को दर्शन दिए थे और हिरण्यकश्यप का वध किया था.

लेकिन हिरण्यकश्यप का वध करने के बाद भी भगवान नरसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ. तब प्रहलाद ने तप करके उनका क्रोध शांत किया जिसके बाद भगवान नरसिंह शांत रूप में जोशीमठ में विराजमान हुए.

आज उसी जगह भगवान नरसिंह का मंदिर है. सर्दियों में जब बद्रीनाथ धाम में बर्फ जम जाती है तो भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति को भी इसी मंदिर में रखा जाता है और यहीं उनकी पूजा की जाती है.

जोशीमठ के प्रसिद्ध होने का एक और कारण है आदि गुरु शंकराचार्य | 

 

 

जोशीमठ के शंकराचार्य की कहानी

शंकराचार्य ने पूरे भारत में 4 दिशाओं में 4 मठ स्थापित किए थे

रामेश्वरम में श्रृंगेरी मठ

उड़ीसा के पुरी में गोवर्धन मठ

गुजरात में द्वारकाधाम में शारदा मठ 

और  

उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ 

ज्योतिर्मठ, जोशीमठ का ही नाम है और इसे पहले ज्योतिर्मठ के नाम से ही जाना जाता था | सदियों से ये जगह वैदिक शिक्षा और ज्ञान का केंद्र रही है इसकी स्थापना शंकराचार्य ने 8 वीं शताब्दी में की थी |  इस मठ के अंतर्गत अथर्ववेद को रखा गया है और इसके पहले मठाधीश आचार्य तोटक थे

यहीं वो 2400 वर्ष पुराना कल्पवृक्ष भी है जिसके नीचे आदि गुरु शंकराचार्य ने कठोर तप किया था. ये कल्पवृक्ष जोशीमठ के पुराने शहर में मौजूद है.

जोशीमठ आने वाले श्रद्धालु इस वृक्ष के दर्शन करने ज़रूर आते हैं.

मंदिर के एक हिस्से शंकराचार्य की लो भी जल रही है और इस ज्योति के दर्शन की भी बहुत अहमियत मानी जाती है.

जोशीमठ ही वो स्थान है जहाँ शंकराचार्य ने शंकर भाष्य की रचना की थी जो की सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों में से एक है. 

 

जोशीमठ के विनाश की भविष्यवाणी

जोशीमठ में दरार आना महज इत्तेफाक नहीं है इसकी भविष्यवाणी तो सालों पहले की जा चुकी है.

कहा जाता है की यहाँ के नरसिंह मंदिर में भगवान नरसिंह की मूर्ति की दाहिनी भुजा लगातार पतली होती जा रही है और स्कंद पुराण के केदारखंड में इसके बारे में लिखा है की जब ये भुजा टूटकर गिर जाएगी तो नर पर्वत और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएँगे | 

इन पर्वतों के मिल जाने से बद्रीनाथ धाम तक पहुँचने का रास्ता बंद हो जाएगा | 

जिसके बाद भगवान बद्रीनाथ की पूजा बद्रीनाथ धाम में नहीं बल्कि भविष्य बद्री में होगी. ये जगह बद्रीनाथ से 18 किलोमीटर की दूरी पर तपोवन में है |

 

Joshimath kya hai (स्वर्ग का द्वार)

जोशीमठ में दरार आने से जिस तरह मीडिया और सोशियल मीडिया में इसकी चर्चा हो रही है उसका एक कारण और भी है.

वो ये की जोशीमठ को स्वर्ग का द्वार भी कहा जाता है. जोशीमठ को जब आप पार करेंगे तो आप पहुँच जाएँगे फूलों की घाटी में और फिर पहुंचेंगे औली | इस जगह की सुंदरता के कारण इसे स्वर्ग जैसा कहा जाता है | 

सर्दियों में इस जगह सैंकड़ों टूरिस्ट्स पहुँचते हैं और Skiing का मजा लेते हैं | 

लेकिन एक पौराणिक कथा के आधार पर भी इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं.

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद जब पांडव स्वर्ग के द्वार की और बढ़ रहे थे तो उन्होने इसी रास्ते को चुना था.

जोशीमठ को पार करके पांडव बद्रीनाथ के पास स्वर्गारोहिणी नाम के एक पर्वत शिखर पर पहुँच गये थे. इसी जगह से एक एक करके सभी ने युधिष्ठर का साथ छोड़ दिया था. और इसके आगे के सफ़र पर धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सिर्फ़ एक कुत्ता गया था.

ये वो पौराणिक कारण है जिसकी वजह से जोशीमठ को स्वर्ग का द्वार कहा जाता है |

 

जोशीमठ कहाँ है (जोशीमठ की भोगोलिक स्थिति)

ये शहर समुंद्र तल से लगभग 6000 फीट उँचाई पर स्थित है. अगर आपको ऋषिकेश से बद्रीनाथ जाना हो तो ये शहर उस रास्ते में नेशनल हाईवे 7 पर आपको मिलेगा.

अलकनंदा नदी के बाएं किनारे पर स्थित ये शहर भारत के सबसे ज़्यादा भूकंप प्रभावित इलाक़े ज़ोन 5 में आता है.

हाल ही में यहाँ आई दरार से इस शहर की इमारतों की स्थिति ऐसी हो चुकी है की 2 से 3 रिक्टर स्केल के भूकंप से यहाँ सब कुछ ढह सकता है | 

सालों से बद्रीनाथ और सिखों के पवित्र स्थान हेमकुंड साहिब जाने वाले यात्री यहाँ रुक कर आगे की यात्रा पूरी करते हैं..

सर्दियों के मौसम में यहाँ से औली भी बहुत से टूरिस्ट्स जाते हैं 

यही वजह है की इतने सालों में यहाँ बहुत से होटलों का निर्माण हुआ है.

 

जोशीमठ आर्मी के लिए है अहम

जोशीमठ श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र तो है ही लेकिन आर्मी के लिए इसका बहुत ज़्यादा महत्व है |  

1962 के भारत चीन युद्ध में भी भारतीय सेना इसी जगह रुकी थी. चीन सीमा पर स्थित नीति माणा गांव जाने का रास्ता यहीं से होकर गुज़रता है.

1962 के युध में भारत की हार हुई थी, उस हार के क्या कारण थे उसका वीडियो आप ऊपर आई बटन पर क्लिक करके देख सकते हैं.

हाल के दिनों में भी चीन भारत के खिलाफ आक्रामक रुख़ अपनाए हुए है जिसके चलते सीमा पर रसद पहुँचने के लिए चार धाम रोड परियोजना की अहमियत बढ़ गई है. 

पर यही परियोजना ही कहीं, जोशीमठ और आस पास के क्षेत्र के लिए ख़तरा तो नहीं बन गई ?

इस परियोजना से पहाड़ों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी थी लेकिन सरकार के पक्ष में फ़ैसला आने के बाद ये परियोजना फिर से शुरू हो गई | 

पर इस परियोजना ने अब अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया है..

इसके अलावा जोशीमठ की इस हालात का ज़िम्मेदार कौन है आइए जानते हैं…

 

जोशीमठ क्यों डूब रहा है

जोशीमठ के इतिहास के बारे में हिस्टोरियन शिव प्रसाद डबराल कह चुके हैं की जोशीमठ में 1000 साल पहले एक लैंडस्लाइड आया था. उस समय यहाँ कत्यूरी राजवंश का शासन था. कत्यूरी राजवंश के समय में जोशीमठ का नाम कीर्तिपुर था और यही इस राजवंश की राजधानी भी था.

यहाँ आइए भूस्खलन के बाद कत्यूर राजाओं को अपनी राजधानी जोशीमठ से दूसरी जगह शिफ्ट करनी पड़ी थी.

1960 में सबसे पहले यहाँ मकानो में दरार आई थी जिसके बाद ये पता  चला की यहाँ ख़तरनाक लैंडस्लाइड्स हो सकती हैं. 

1976 के आस पास भी जोशीमठ में लैंडस्लाइड्स की काफ़ी घटनायें हुई थी और उस समय कमिश्नर गढ़वाल मंडल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी थी.

इस कमेटी की रिपोर्ट में साफ कहा गया था की जोशीमठ किसी ठोस चट्टान पर नहीं बसा है बल्कि ये पहाड़ों के मलबे पर बना है जो कभी भी दरक सकते हैं.. 

अगर इस जगह को बचाना है तो इसके आस पास की चट्टानों को नहीं छेड़ना चाहिए और यहाँ कंस्ट्रक्शन के काम को बंद कर देना चाहिए. 

साथ ही यहाँ और आस पास बहुत सारे पेड़ लगाने की बात भी की गयी थी, पर आगे के इतने वर्षों में सब काम इसके उलट किए गये. 

यहाँ आर्मी के लिए कैंप बनाया गया, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाया गया, बड़े बड़े होटलों का निर्माण किया गया, NTPC द्वारा बनाए गये

Tapovan Vishnugadh हाइड्रो पावर प्रॉजेक्ट और चार धाम परियोजना के तहत बन रहे Helang Bypass ने जोशीमठ को भारी नुकसान पहुँचाया.

हाइड्रो पावर प्रॉजेक्ट के लिए टनल खोदी गयी जिसके लिए बार बार ब्लास्ट किए गये जिसके चलते जोशीमठ की आज ये हालात है.

हालात को देखते हुए Heland और Marwari के बीच चार धाम योजना, तपोवन विष्णुगढ़ प्रॉजेक्ट और जोशीमठ – औली रोपवे प्रॉजेक्ट को रोक दिया गया है. 

पर क्या जोशीमठ को बचाया जा सकता है. शायद अब इसमें बहुत देर हो चुकी है और अब लोगों को दूसरी जगहों पर ले जाकर ज़िंदगियों को बचाए जाने का अभियान ही चलाया जा सकता है. 

दोस्तों आपको क्या लगता है जोशीमठ की इस हालत का कौन जिम्मेदार है नीचे कमेंट करके जरूर बताएं और जोशीमठ का इतिहास अपने दोस्तों के साथ शेयर करें |  

 

 

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Cleopatra का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

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Cleopatra Biography in Hindi
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अपने रानियों की कहानियाँ तो बहुत सुनी होंगी लेकिन क्या आप जानते हैं कि पूरी दुनिया में किसी एक रानी पर सबसे ज़्यादा फिल्में, नाटक और प्ले किए गये हैं तो वो है मिस्त्र की रानी क्लियोपैट्रा | क्लियोपैट्रा दुनिया की ऐसी रानी है जिसके किस्से सबसे ज्यादा सुनाए जाते हैं | अपनी सुंदरता से लोगों के दिलों पर राज करने वाली रानी हैं क्लियोपैट्रा | शातिर, चालक, कामुक और बड़े बड़े योद्धाओं के दिलों पर राज करने वाली क्लियोपैट्रा दुनिया में इंग्लैंड की महारानी से भी कहीं अधिक मशहूर है | Cleopatra Biography in Hindi

 

Cleopatra का इतिहास Biography जीवन परिचय in Hindi

 

Selena Gomez Biography जीवन परिचय in Hindiएलेग्जेंडर के बाद मिस्र पर राज करने वाली औरत थी क्लियोपैट्रा |

इसके साथ ही वो मिस्र के सिंहासन पर बैठने वाली आखिरी रानी भी थी जिसने लगभग 30 साल तक मिस्त्र पर राज किया था | पहले अपने पिता के साथ, फिर अपने दो छोटे भाइयों के साथ और उसके बाद अपने बेटे के साथ वो मिस्त्र की संयुक्त शासक रही | अपने हुस्न, जलवों और अजीबो गरीब हरकतों की वजह से वो आज भी याद की जाती हैं | क्लियोपेट्रा के हुस्न के जलवों के बारे में कहा जाता है कि अगर वो किसी को एक नज़र देख भी लेती थी वो शख्स उसका दीवाना हो जाता था | अपने सौंदर्य के जादू से उसने बड़े से बड़े राजा महाराजाओं को अपना दीवाना बना रखा था | उसके बारे में कहा जाता है कि वो पुरुषों को अपने मोह जाल में फसा कर उन्हें अपने रास्ते से बड़ी आसानी से हटा देती थी | उसने जूलियस सीजर और मार्क अंटोनी को भी इसी तरह अपनी सुंदरता के मोह जाल में फसा कर मिस्त्र का शासन हासिल किया था | आइये जानते हैं क्लियोपैट्रा की कहानी और उसके इतिहास के बारे में |

 

 

क्लियोपैट्रा का इतिहास Cleopatra History in Hindi

क्लियोपैट्रा सिर्फ़ खूबसूरत ही नहीं थी बल्कि वो एक बहुत चालाक राजनीतिज्ञ भी थी | असल में हमारे समाज में महिला की क़ाबलियत को बड़ी आसानी से उसकी खूबसूरती और जिस्म से जोड़ दिया जाता है |

क्लियोपैट्रा 9 से अधिक भाषायें बोल लेती थी और बुद्धिमता के मामले में भी वो बड़े बड़े पॉलिटिशियन्स से कम नहीं थी |

उसे मैथ फिलॉसोफी, और अस्ट्रॉनमी की भी अच्छी जानकारी थी | उसका सबसे बड़ा हथियारों में उसका खूबसूरत जिस्म, तेज दिमाग और उसका बोलने का अंदाज़ अहम थे |

 

 

मिस्त्र की मल्लिका बनने की कहानी Cleopatra Story in Hindi

क्लियोपैट्रा उस मिस्त्र की रानी थी जिस पर किसी वक़्त में एलेग्जेंडर द ग्रेट ने अपना कब्ज़ा कर लिया था | ईजिप्ट में एलेग्जेंडर ने अपने नाम से एक शहर बसाया था जिसे आज भी अलेक्जेंड्रिया के नाम से जाना जाता है |

एलेग्जेंडर के ईजिप्ट पर आक्रमण में उसके मिलिटरी जनरल टॉलेमी ने बाद में ईजिप्ट में मैकडोनियन साम्राज्य की स्थापना की थी |

क्लियोपैट्रा के पिता Ptolemy XII थे | Ptolemy I जो की एलेग्जेंडर का सेनापति मिलिट्री जनरल था एलेग्जेंडर की मृत्यु के बाद मिस्त्र का राजा बना था |

उसी टॉलिमी 1 के वंशजों में टॉलिमी 12 की संतान थी क्लियोपैट्रा |

क्लियोपैट्रा के पिता की मृत्यु के बाद मिस्त्र के सिंहासन पर बैठने को लेकर षड्यंत्र होने लगे | क्लियोपैट्रा की आयु उस समय 18 वर्ष थी जो सबसे बड़ी थी इसलिए वो रानी बनना चाहती थी लेकिन उसका भाई जो की उससे छोटा था ऐसा नहीं चाहता था | हालाँकि उस समय उसके छोटे भाई की आयु 10 वर्ष थी |

उस समय भी पुरुष समाज किसी महिला को सत्ता के सिंहासन पर बैठा हुआ नहीं देख सकता था | इसलिए सबने मिलकर क्लियोपैट्रा की खिलाफत शुरू कर दी और हालत ये हो गये कि क्लियोपैट्रा को मिस्त्र से भाग कर सीरिया आना पड़ा |

अब क्लियोपैट्रा की असली परीक्षा शुरू होती है | उसने हार मानने की बजाए वहाँ पर अपनी आर्मी को इकट्ठा करना शुरू किया और मिस्त्र की मल्लिका बनने के सपने को लेकर वो मिस्त्र की ओर आगे बढ़ने लगी |

 

जूलियस सीज़र से सामना

क्लियोपैट्रा की लड़ाई में उसका साथ दिया जूलियस सीजर ने | क्लियोपैट्रा ने सीजर को अपने वश में कर लिया था | उसकी सीजर से पहली मुलाकात बड़ी रोमांचक थी |

वो एक कालीन में लिपट कर जूलियस सीजर से मिलने पहुंची थी | जिसे देखकर सीजर उसका दीवाना हो गया था |

इस तरह क्लियोपैट्रा की ताक़त कई गुना बढ़ गयी थी | जिसके बाद उसने अपने भाई को हराकर मिस्त्र पर फिर से अधिकार कर लिया |

क्लियोपैट्रा जूलियस सीजर के साथ रोम की रानी बन कर रहने लगी थी | लेकिन तब जूलियस सीजर की हत्या हो गयी | इसके बाद क्लियोपैट्रा वापिस मिस्त्र में आकर रहने लगी |

मार्क अंटोनी और Octavian के बीच जूलियस सीजर की मौत के बाद सत्ता का बंटवारा हो गया था | क्लियोपैट्रा ने मार्क अंटोनी को भी अपने हुस्न के जाल में फंसा लिया था |

कहते हैं कि अपने हुस्न को बनाये रखने के लिए वो क्लियोपैट्रा रोजाना 700 गधी का दूध मंगवाती थी | क्यूंकि एक शोध के अनुसार गधी के दूध में गायें के दूध से भी कम वसा होती है |

इसीलिए मिस्त्र की ये अंतिम रानी गधी के दूध से स्नान करती थी ताकि उसका यौवन हमेशा जवान रहे |

 

ऑक्टेवियन से युद्ध

मार्क अंटोनी और क्लियोपैट्रा आपस में मिल गए थे | लेकिन दूसरी ओर ऑक्टेवियन रोम पर एकाधिकार के साथ मिस्त्र को भी कब्जे में लेना चाहता था | क्लियोपैट्रा और अंटोनी ने मिलकर ऑक्टेवियन से युद्ध किया और दोनों की फौज मिलकर भी ऑक्टेवियन को नहीं हरा सकी |

इस युद्ध में ऑक्टेवियन को विजय मिली | हार के बाद क्लियोपैट्रा और मार्क अंटोनी को इजिप्ट भागना पड़ा |

 

 

क्लियोपैट्रा की मौत Cleopatra Death in Hindi

क्लियोपैट्रा की मौत एक बहुत बड़ा रहस्य है | इतिहासकारों के अनुसार क्लियोपैट्रा ने पहले मार्क अंटोनी की हत्या करवा दी और बाद में खुद भी जान दे दी |

कहा जाता है कि अंटोनी को लगा कि क्लियोपैट्रा मर चुकी है इसलिए उसने जान दे दी | वहीँ कुछ लोगों का कहना है कि क्लियोपैट्रा ने मार्क अंटोनी के सामने ही इजीप्टइन कोबरा से कटवाकर अपनी जान दे दी थी |

जिसके बाद अंटोनी ने भी अपनी जान दे दी |

क्लियोपैट्रा इतिहास में अपने सौंदर्य, रणनीति और अपने प्रेम संबंधों के चलते चर्चा में रही | फिर भी उसे समय के पुरुष प्रधान समाज में भी उसने अपनी एक अलग पहचान बनाई थी |

 

 

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